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पुनः खड़े होकर नेमिप्रभु को नमस्कार करके भक्ति से पवित्र वाणी द्वारा स्तुति करना प्रारम्भ किया ।
(गा. 274 से 289)
' हे जगन्नाथ! सर्व विश्व के उपकारी, जन्म से ब्रह्मचारी, दयावीर और रक्षक आपको हमारा नमस्कार हो । हे स्वामिन्! चौवन दिन में शुक्लध्यान से आपने घाती कर्मों का घात किया, यह हमारे ही भाग्ययोग से बहुत ही अच्छा हुआ है । हे नाथ! आपके केवल यदुकुल को ही शोभित किया है ऐसा नहीं है, परंतु केवलज्ञान के आलोक में सूर्य रूपी प्रभु आपने त्रैलोक्य को भी शोभित किया है । हे प्रभु! यह संसार सागर जो कि अपार एवं अगाध है । वह आपके प्रासाद से घुटने तक मात्र ऊँडा और गाय के खुर जितना लघु हो जाता है । है नाथ! सर्व का हृदय ललनाओं के ललित चरित्र से बिंद जाता है, परन्तु इस जगत में आप एक ही उससे अमेघ और वज्र के जैसे हृदयवाले रहे हो, अन्य कोई वैसा नहीं है । हे प्रभु! आपको व्रत लेने में निषेध करने वाली जो बंधुओं की वाणी हुई थी वह अभी आपकी इस समृद्धि को देखने से पश्चाताप में परिणित हो गई है। उस समय दुराग्रही बंधुवर्ग से हमारे भाग्य के बल से ही आप स्खलित केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, ऐसे आप हमारी रक्षा करो। हे देव ! जहाँ वहाँ रहे हुए और जैसे तैसे करते हुए हमारे हृदय में आप विराजित रहना, अन्य किसी की हमको आवश्यकता नहीं है।' इस प्रकार स्तुति करके इंद्र और कृष्ण ने विराम लिया । तब प्रभु ने सर्व भाषा को अनुसरती ऐसी वाणी द्वारा धर्मदेशना प्रारंभ की।
(गा. 290 से 298)
सर्व प्राणियों के लिये लक्ष्मी विद्युत के विलास जैसी चपल है। संयोग अंत में वियोग को ही प्राप्त करने वाला तथा स्वप्न में प्राप्त हुआ द्रव्य जैसा है । यौवन मेघ की छाया जैसा नाशवंत है । प्राणियों का शरीर जल के बुदबुदे जैसा है। इससे इस असार संसार में कुछ भी सारभूत नहीं है । मात्र ज्ञान, दर्शन और चारित्र का पालन यही सारभूत है । उसमें तत्त्व पर जो श्रद्धा, वह सम्यग्दर्शन कहलाता है । यथार्थ तत्त्व का बोध यह ज्ञान कहलाता है, और साद्य योगों से विरति, वह मुक्ति का कारण चारित्र कहलाता है । वह चारित्र मुनियों को सर्वात्मरूप से तथा गृहस्थों को देश से होता है। श्रावक यावत् जीवन पर्यन्त देश
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व )
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