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चारित्र में तत्पर, सर्व साधुओं का उपासक और संसार के स्वरूप का ज्ञाता होता है। श्रावक को १. मदिरा, २. मांस, ३. मक्खन, ४. मधु, ५-९. पांच प्रकार के उंबरादि वृक्ष के फल, १०. अनन्तकाय, ११. अज्ञात फल, १२. रात्रिभोजन, १३. कच्चे गोरस (दूध, दही, छाछ) के साथ दालों का मिलाना, द्दिदल, १४. पुष्पितभात (बासी भोजन), चलितरस अर्थात् दो दिन व्यतीत हुआ दही और बिगड़ा हुआ अन्न अर्थात् चलित रस काल व्यतीत होने के बाद की मिठाईयाँ आदि सर्व अभक्ष्य (अर्थात् हिम, बर्फ, करा-ओले, सर्व प्रकार का विष, कच्ची मिट्टी, नमक आदि, तुच्छ फल, संधानक-बोर आदि का अचार, बहुबीज और बैंगन आदि) का त्याग करना चाहिए।
(गा. 299 से 306) जिस प्रकार पुरुष चतुर भी हो परंतु दुर्भाग्य के उदय से स्त्री उससे दूर रहती है- चाहती नहीं है। वैसे ही मदिरापान करने से बुद्धि नष्ट हो जाती है। मदिरा के पान से जिनका चित्त परवश हुआ है, ऐसे पापी पुरुष माता को प्रिय मानते हैं और प्रिय को माता मानते हैं। वे चित्त चलित हो जाने से अपने या पराये के या पराये या अपने पदार्थों को जानते नहीं है। स्वयं रंक होने पर भी स्वामी हो बैठते हैं और अपने स्वामी को किंकर समान गिनते हैं। शव की तरह चौराहे पर आलोटते मद्यपायी (शराबी) के मुख में श्वान विवर समझकर पेशाब करता है। मद्यपान के रस में मग्न हुआ मनुष्य नग्न होकर चौट (चौपड़) में सो जाता है और सहज में अपना गुप्त अभिप्राय को भी प्रकाशित कर देता है। जिस प्रकार विचित्र चित्र की रचना भी काजल मिटाने से नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार मदिरा के पान से कांति, कीर्ति, भिति और लक्ष्मी चली जाती है, शराबी भूत की तरह नाचता है, शोक युक्त हो ऐसा चिल्लाता है और दाहज्वर हुआ हो, वैसा पृथ्वी पर लौटता है। मदिरा हलाहल विष की तरह अंग को शिथिल कर देती है, इंद्रियों को ग्लानि देती है, और मूर्च्छित कर देती है। अग्नि की एक चिनगारी से जैसे तृण का बड़ा ढेर भस्म हो जाता है, वैसे ही मद्यपान से विवेक, संयम, ज्ञान, सत्य, शौच, दया और क्षमा सर्व विलीन हो जाता है। मदिरा के रस में बहुत से जीवजंतुओं का उद्भव हो जाता है, इसलिए हिंसा के पाप से भीरू पुरुष को कदापि मदिरापान नहीं करना चाहिए। शराबी जिसे कुछ दिया हो उसे नहीं दिया कहता है, लिया हो उसे नहीं लिया कहता है, किया हो
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)