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कोई उनके साथ क्रीड़ा में विशेष कालक्षेप करने की इच्छा से उनकी भुजापर बारम्बार नये-नये केयूर बांधने लगी । इस प्रकार ऋतु को अनुसरण करके श्री मकुमार ने भी निर्विकार चित्त से उनके प्रति आभार व्यक्त किया।
(गा. 57 से 66 )
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इस प्रकार विचित्र क्रीड़ाओं से एक अहोरात्र वहाँ ही निर्गमन करके कृष्ण परिवार के साथ वापिस द्वारका में आये । राजा समुद्रविजय, दूसरे दशार्ह और कृष्ण सभी नेमिनाथ के पाणिग्रहण कराने में सर्वदा उत्कंठित रहने लगे। इस प्रकार क्रीड़ा करते नेमि और कृष्ण की बसंतऋतु व्यतीत हो गई और काम की भांति सूर्य को प्रौढ़ करती ग्रीष्मऋतु आ गई। उस समय कृष्ण के प्रताप की तरह बालसूर्य भी असह्य हो गया और प्राणियों के कर्म की तरह रात्रि में भी धर्म (ताप) शांत होता नहीं रहा । उस ऋतु में जवान पुरुष श्वेत कदली की त्वचा जैसे कोमल और कस्तूरी से धूपित ऐसे वस्त्र पहनने लगे । स्त्रियाँ कामदेव के शासन की तरह हाथी के कर्ण जैसे चलाचल पंखें को किंचित् मात्र भी नहीं छोड़ती, युवक विचित्र पुष्परस द्वारा दुगुने सुगंधित किये हुए चंदन जल को अपने ऊपर बार-बार छाँटने लगे। नारियाँ हृदय पर सर्व तरफ कमलनाल रखती हुई मुक्ताहार से भी अधिक सौभाग्य (शोभा) पाने लगी । पुनः पुनः बाहु से गाढ़ आलिंगन करते हुए युवक प्रिया की तरह जलार्द्र वस्तु को छाती पर ही रखने लगे। ऐसी धर्म से भीष्म जैसी ग्रीष्मऋतु में कृष्ण अंतःपुर के साथ नेमिनाथ को लेकर खैतगिरि के उद्यान में स्थिति सरोवर में क्रीड़ा करने के लिए आये। तब मानसरोवर में हंस तर तरह वे सरोवर में कृष्ण अंतःपुर और नेमिनाथ सहित जलक्रीड़ा करने घुसे । उसमें कंठ तक मग्न हुई कृष्ण की स्त्रियों के मुख नवीन उद्भवित कमलिनी के खुड की भ्रांति को उत्पन्न करने लगे। कृष्ण ने किसी रमणी पर जल की अंजलि डाली, तब उस चतुरा गूडुपके जल से ही कृष्ण पर आक्षेप किया। अनेक जलनीरु वामा कृष्ण से चिपक जाती, इसलिए कृष्ण ठीक पुतलीवाले स्तंभ की शोभा को धारण करते थे । जलकंपात की तरह बारम्बार उछलती मृगाक्षियाँ कृष्ण के उरःस्थल में वेग से टकराती थी। जल के आघात से वह रमणियों की दृष्टि ताम्रवर्णी हो जाती थी, वे मानो अपने भूषणरूपी अंजन के नाश से उनको स्त्री को उसकी प्रतिपक्षी सपत्नि के नाम से बुलाते थे, जिससे वह हाथी की सूंढ की तरह कमलद्वारा कृष्ण को प्रहार करती थी । किसी बात को कृष्ण अधिक देर तक देखते थे,
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व )
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