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इसलिए अब तो उसके हेतु रूप कर्म का उच्छेद करने का ही प्रयत्न करूँगा। उस कर्म का उच्छेद दीक्षा के बिना साध्य नहीं है। इसलिए मैं वही ग्रहण करूँगा, आप वृथा ही आग्रह न करें।
(गा. 192 से 199) पुत्र के इस प्रकार वचन सुनकर समुद्रविजय बोले- 'वत्स! तू गर्भेश्वर है, सुकुमार है तो दीक्षा का कष्ट किस प्रकार सहन करेगा? ग्रीष्मऋतु का घोर ताप सहन करना तो दूर रहा, परन्तु अन्य ऋतुओं का ताप भी छत्री बिना सहन करना कठिन है। क्षुधा-तृषा आदि के दुःख दूसरों से भी सहन नहीं होते तो दिव्य भोगों के योग्य शरीर वाले तुमसे ये कैसे सहन होंगे? यह सुनकर नेमिप्रभु बोले- 'पिताजी! जो प्राणी उत्तरोत्तर नारकी के दुःखों को जानता है। उसमें समक्ष तो ये दुःख है ही क्या ? तपस्या के सहज भाव दुःख से अनंत सुखात्मक मोक्ष मिलता है और विषयों के किंचित् सुख से अनंत सुखात्मक मोक्षदायक नरक प्राप्त होता है। तो आप ही स्वयमेव विचार करके कहो कि इन दोनों में से क्या करना योग्य है ? इस पर विचार करने से सभी मनुष्य जान ही सकता है, परंतु विरले ही इस पर विचार करते हैं। इस प्रकार नेमिकुमार के वचनों से उनके माता-पिता, कृष्ण और राम आदि अन्य स्वजनों ने नेमिनाथ की दीक्षा का निश्चय जान लिया, इससे वे उच्च स्वर से रूदन करने लगे और श्री नेमिनाथ रूप हस्तिश्रेष्ठ स्वजनस्नेह रूपी बेड़ी को तोड़कर सारथि से रथ चलवाकर स्वगृह आ गये।
___ (गा. 200 से 207) उस समय योग्य अवसर जानकर लोकांतिक देवगण वहाँ आए, और प्रभु को नमस्कार करके बोले कि हे नाथ! तीर्थ का प्रवर्तन करो। भगवान् नेमि ने इंद्र की आज्ञा से जुंभक देवता द्वारा भरे हुए द्रव्य द्वारा वर्षीदान देना आरंभ किया।
(गा. 208 से 209) नेमिनाथ वापिस लौट गये और वे व्रत लेना चाहते हैं, यह समाचार सुनकर राजीमति वृक्ष पर खिंची हुई वल्ली को तरह भूमिपर गिर जाती है, उसी भांति जैसे मूर्छा खाकर पृथ्वी पर गिर पड़ी। शीघ्र भयभीत हुई उसकी सखियाँ सुगंधित शीतल जल से सिंचन करने लगी। कंदलीदल के पंखे से हवा करने
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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