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लगी। फलस्वरूप कुछ समय में संचेतना पाकर बैठी हुई। तब जिसके कपोलभाग पर केश उड़ रहे थे और अश्रुधारा से जिसकी कंचुकी भीगी हुई थी, ऐसी वह बाला विलाप करने लगी। अरे देव! नेमि मेरे पति हों, ऐसा मेरा मनोरथ भी नहीं था, फिर भी हे नेमि! किसने देव से प्रार्थना की कि जिससे तुम मेरे स्वामी हुए, और स्वामी हुए तो भी इस प्रकार अचानक वज्रपात की तरह तुमने मुझसे ऐसा विपरीत व्यवहार किया? इस पर से तुमसे एक ही मायावी और विश्वासघाती हो, ऐसा लगता है। अथवा मेरे भाग्य की प्रतीति से तो मैंने पहले ही जान लिया था कि तीन जगत् में उत्कृष्ट नेमिकुमार मेरे वर कहाँ ? और मैं कहाँ ? अरे नेमि! यदि पहले ही मुझे विवाह के लायक समझा नहीं था तो विवाह अंगीकार करके मुझे ऐसा मनोरथ किसलिए उत्पन्न कराया? और हे स्वामिन्! यदि ऐसा मनोरथ कराया तो फिर उसे भग्न क्यों किया? कारण कि 'महान् पुरुष जो स्वीकार करते हैं, उसे यावज्जीवन पर्यन्त स्थिर रूप से पालते भी हैं। हे प्रभो! आपके जैसे महान पुरुष भी जो स्वीकृत से चलित होंगे तो अवश्य ही समुद्र भी अपनी मर्यादा छोड़ देगा अथवा इसमें तुम्हारा कोई भी दोष नहीं है, मेरे कर्म का ही दोष है। अब वचन से भी मैं तुम्हारी गृहिणी तो कहलाऊंगी ही। फिर भी यह सुंदर मातगृह, यह देवमंडप और यह रत्नवेदिका कि जो अपने विवाह के लिए रचे गये थे, ये सब व्यर्थ हो गये। अभी जो धवल मंगल गाए जा रहे हैं, वे सब सत्य नहीं होते यह कहावत सत्य हो गई है। कारण कि तुम धवलगीतों में मेरे भर्ता रूप से गाये गये हो, परंतु वह सत्य नहीं हुआ। क्या मैंने पूर्वजन्म में दंपत्तियों का वियोग कराया होगा कि जिससे इस भव में पति के करस्पर्श का सुख भी मुझे प्राप्त नहीं हुआ। इस प्रकार विलाप करती हुई राजीमति ने दोनों करकमलों से छाती कूटते हुए हार तोड़ डाला और कंकणों को फोड़ डाला। उस समय उसकी सखियाँ बोली- 'हे बहन! किस लिए तू इतना खेद करती है? तेरा इसके साथ क्या संबंध है? और अब तुमको इससे क्या काम है? स्नेह बिना का, निःस्पृह, व्यवहार से भी विमुख, वन के प्राणियों की तरह घर में रहने पर भी गृहवास में भीरू, दाक्षिण्यता बिना का, निष्ठर और स्वेच्छाचारी ऐसा यह वैरीरूप नेमि चला गया, तो भले गया। अपन ने इसे पहले से ही जान लिया, यह ठीक हुआ। यदि तुमको परण कर बाद में इस प्रकार ममतारहित हुआ होता तो कुएं में उतार कर रस्सी काटने जैसा होता। अब पद्युम्न, शांब आदि अन्य अनेक यदुकुमार हैं, उनमें से जो मनपसन्द हो, वह तुम्हारा पति हो
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)