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शांब ने स्वीकारा नहीं। इससे सर्व कुमारों के साथ उसे खूब मदिरा पान कराकर छल करके सागरचंद्र ने कबूल करवा लिया। जब उसकी मदावस्था पूर्णता पर चली गई, तब शांब ने विचार किया कि मैंने दुष्कर कार्य स्वीकारा है, परंतु अब उसका निर्वाह करना चाहिए। पश्चात् प्रज्ञप्ति विद्या का स्मरण करके अन्य कुमारों को साथ लेकर नमःसेन के विवाह के दिन शांब उद्यान में आया और वहाँ से कमलामेला के घर तक सुरंग तैयार कराई। आसक्त हुई कमलामेला को घर में से उद्यान में उठाकर लाकर सागरचंद्र के साथ विधिपूर्वक विवाह करवा दिया। जब वह कन्या घर में दिखाई नहीं दी, तब इधर-उधर उसकी तलाश करते घनसेन के व्यक्ति उद्यान में आये। वहाँ पर उन्होंने खेचरों के रूप बनाए हुए यादवों के मध्य में कमलामेला को देखा। तब उन्होंने यह बात कृष्ण को ज्ञात कराई। कृष्ण क्रोधातुर होकर उस कन्या का हरण करने वालों के पास आए और उनको मारने की इच्छा से उनके साथ युद्ध करने लगे क्योंकि वे किसी के अन्याय को सहन नहीं कर सकते थे। तब शांब ने अपना मूल रूप प्रकट करके कमलामेला सहित सागरचंद्र को लेकर कृष्ण के चरणों में गिर पड़े। कृष्ण ने खिन्न होकर कहा कि अरे तूने यह क्या किया? अपने आश्रित रहा नमःसेन को क्यों छला? शांब ने सर्व हकीकत कह सुनाई। तब बाद में कृष्ण ने 'अब क्या उपाय है?' ऐसा कहकर नमःसेन को समझाया और कमलामेला को सागरचंद्र को सौंप दिया। नमःसेन सागरचंद्र का कुछ भी उपकार करने में असमर्थ था, इसलिए तब से ही वह सागरचंद्र का छिद्र ढूँढने लगा।
(गा. 48 से 74) इधर प्रद्युम्न के वैदर्भी नामकी स्त्री से अनिरुद्ध नाम का पुत्र हुआ। अनुक्रम से यौवनवय को प्राप्त हुआ। उस समय शुभनिवास नाम के नगर में बाण नाम का एक उग्र खेचरपति था। उसके उषा नामकी कन्या थी। उस रूपवती बाला ने अपने योग्य वर की प्राप्ति के हेतु से दृढ़ निश्चय से गौरी नामकी विद्या की आराधना की। वह संतुष्ट होकर बोली- 'वत्से! कृष्ण का पौत्र अनिरुद्ध जो कि इंद्र के समान रूपवंत एवं बलवंत है, वह तेरा भर्ता होगा।' गौरी विद्या के प्रिय शंकर नामक देव को बाण ने साधा। इससे उसने प्रसन्न होकर बाण को रणभूमि में अजेय होने का वरदान दिया। यह बात ज्ञात होने पर गौरी ने शंकर को कहा कि 'तुमने बाण को अजेय होने का वरदान दिया, वह ठीक नहीं किया। क्योंकि मैंने उसकी पुत्री उषा को पहले से ही वरदान दिया
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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