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इस शिला के पहले वासुदेव ने भुजा के अग्रभाग तक ऊँची की, दूसरे ने मस्तक तक, तीसरे ने कंठ तक, चौथे ने उरःस्थल तक, पांचवें ने हृदय तक, छटे ने कटि तक, सातवें ने जंघा तक, आठवें ने जानु तक, नवें कृष्ण वासुदेव ने पृथ्वी से चार अंगुल ऊँची धारण की क्योंकि अवसर्पिणी के नियामानुसार वसुदेव का बल भी कम होता जाता है।
(गा. 28 से 32) तब कृष्ण द्वारका में आए। वहाँ सोलह हजार राजाओं और देवताओं ने अर्धचक्रपन का अभिषेक किया। उसके पश्चात् कृष्ण ने पांडवों को कुरुदेश की
ओर एवं अन्य भूचरों तथा खेचरों को अपने अपने स्थान की ओर विदा किया। समुद्रविजय आदि दश बलवान् दशार्हो, बलदेवादिक पांच महावीरां, उग्रसेन, प्रमुख सोलह हजार राजाओं, प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन करोड़ कुमारों, शांबादिक साठ हजार दुर्दीत कुमारों, वीरसेन प्रमुख एक्कीस हजार वीरों, महासेन प्रसूति महाबलवान् छप्पन हजार तलवर्गों और इसके अतिरिक्त इम्य, श्रेष्ठी, सार्थपति
आदि हजारों पुरुष मस्तक पर अंजलिजोड़ कर कृष्ण की सेवा करने लगे। किसी समय सोलह हजार राजाओं ने आकर भक्ति से अनेक रत्न और दो-दो उत्तम कन्याएँ कृष्ण वुसदेव को अर्पण की। उनमें से सोलह हजार कन्याओं से कृष्ण ने विवाह किया, आठ हजार कन्याओं से बलराम ने विवाह किया और आठ हजार कन्याओं से उनके कुमारों ने विवाह किया। पश्चात् कृष्ण, राम और कुमार क्रीडोद्यान और क्रीड़ापर्वत आदि में रम्य रमणियों से परिवृत्त हो स्वच्छन्द होकर विहार करने लगे।
(गा. 33 से 42) एक बार उनको क्रीड़ा करते हुए देखकर श्री नेमिनाथ को राजा समुद्रविजय और शिवादेवी प्रेमपूर्ण वाणी से कहने लगे कि- हे पुत्र! तुमको देखने से सदैव हमारे नेत्रों को अतीव प्रसन्नता होती है, उनके कोई योग्य वधू से पाणिग्रहण करके उसमें वृद्धि कराओ। इस प्रकार माता-पिता के वचन सुनकर जन्म से ही संसार से विरक्त और तीन ज्ञान के धारक श्री नेमिप्रभु बोले- 'पिताजी! मैं किसी भी स्थान पर योग्य स्त्री को देखता नहीं हूँ। क्योंकि ये स्त्रियाँ तो निरन्तर दुःख में ही डालने वाली होती है, इससे मुझे ऐसी स्त्रियों की कोई जरूरत नहीं है। जब मुझे अनुपम स्त्री मिलेगी, तब मैं पाणिग्रहण करूँगा। इस प्रकार श्री
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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