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दूसरे दिन समुद्रविजय, कृष्ण वासुदेव के पास तीन स्थविर खेचरियाँ आकर इस प्रकार कहने लगी कि 'प्रद्युम्न और शांब सहित वसुदेव खेचरों के साथ थोड़े समय में यहाँ आ रहे हैं, परंतु उनका जो चमत्कारिक चारित्र जो वहाँ बना है, वह सुनो। वसुदेव दोनों पौत्रों के साथ जैसे ही यहाँ से निकले, वैसे वे वैताढ्यगिरि पर गये। और वहाँ शत्रु खेचरों के साथ उनका युद्ध हुआ। नीलकंठ और अंगारक आदि जो पूर्व के बैरी थे, वे एकत्रित होकर मिलकर युद्ध करने लगे। कल ही निकट के देवताओं ने आकर कहा कि 'कृष्ण के युद्ध का अंत आ गया, जरासंध का वध हुआ। कृष्ण वासुदेव की विजय हुई। यह सुनकर सर्व खेचरों ने रण छोड़कर राजा मंदारवेग को यह बात बताई, तब उन्होंने उनको आज्ञा दी कि 'हे खेचरों! तुम सब उत्तम और भेंट ले लेकर आओ, तब अपन वसुदेव द्वारा कृष्ण की शरण में जाएँ। इस प्रकार कहकर वह खेचरपति त्रिपथर्षभ राजा वसुदेव के पास गये और उनको अपनी बहन दी और प्रद्युम्न को अपनी पुत्री दी। राजा देवर्षभ और वायुपथ ने अत्यन्त हर्ष से अपनी दो पुत्रियों शांब कुमार को दी। अब वे विद्याधर राजा वसुदेव के साथ अभी यहाँ आ रहे हैं और ये समाचार देने के लिए हमको पहले यहाँ भेजा है।
(गा. 13 से 22) इस प्रकार वे कह रही थी कि इतने में वसुदेव प्रद्युम्न और शांब सहित सर्व खेचर राजाओं के साथ वहाँ आ गये और सब के नेत्रों में प्रसन्नता छा गई। खेचरों ने वसुधारा जैसे सुवर्ण, रत्नों, विविध प्रकार के वाहनों, अश्वों और हाथी आदि देकर कृष्ण की पूजा की। कृष्ण ने जयसेन आदि की प्रेत क्रिया की और सहदेव ने जरासंध आदि की प्रेतक्रिया की। जब जीवयशा ने अपने पति और पिता के कुल का संहार देखकर अग्नि में प्रवेश करके अपने जीवन को त्याग दिया। उस समय यादव आनंद से कूदने लगे, इससे कृष्ण ने उस सिनपल्ली गांव के स्थान पर आनंदपुर नामका गाँव बसाया।
(गा. 23 से 27) कृष्ण अनेक खेचरों और भूचरों को साथ लेकर छः महिने में भरतार्द्ध साधकर मगघ देश में आए। वहाँ एक योजन ऊँची और एक योजन विस्तार वाली, भरतार्धवासी देवियाँ और देवताओं से अधिष्ठित कोटिशिला नामकी एक शिला थी। उसे कृष्ण ने अपने बांये हाथ से पृथ्वी से चार अंगुल ऊँची की।
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)