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अष्टम सर्ग
जरासंध की मृत्यु के पश्चात् श्री नेमिनाथ ने जो कृष्ण के शत्रु राजाओं का निरोध करके रखा था उनको छोड़ दिया। उन्होंने नेमिनाथ के पास आकर नमस्कार करके अंजलि बद्ध होकर कहा- 'हे प्रभु! आपने जरासंध को और हमको तब से ही जीत लिया है कि जब से आप तीन जगत् के प्रभु यादव कुल में अवतरित हुए हैं। अकेले वासुदेव प्रतिवासुदेव का हनन करते हैं, उसमें कोई संशय नहीं है, तो फिर हे नाथ। आप जिनके बंधु या सहायक हों उसकी तो बात ही क्या करनी? जरासंध ने और हमने पहले से ही जान लिया था कि हमने यह अकर्त्तव्य कार्य किया है कि जिसके परिणामस्वरूप अपने को हानि ही होने वाली है, परंतु ऐसी भवितव्यता होने से ऐसा बना है। आज हम आपकी शरण में आए हैं, तो हम सबका कल्याण होवे। हम तो आपके समक्ष कह रहे हैं, नहीं तो आपको नमन करने वाले का तो स्वतः कल्याण होता ही है। इस प्रकार कहकर उपस्थिति उन सब राजाओं को साथ लेकर श्री नेमि कृष्ण के पास आए। कृष्ण ने रथ में से उतर कर नेमिकुमार को दृढ़ आलिंगन बद्ध किया। तब नेमिनाथ के वचन से और समुद्रविजय जी की आज्ञा से कृष्ण ने उन राजाओं के और जरासंध के पुत्र सहदेव का सत्कार किया और मगध देश का चौथा भाग देकर उसके पिता के राज्य पर मानो स्वयं का कीर्तिस्तंभ हो, वैसे आरोपित किया। समुद्रविजय के पुत्र महानेमि को शौर्यपुर में और हिरण्यनाभ के पुत्र रूक्मनाभ को कौशल देश में स्थापित किया। इसी प्रकार राज्य लेना नहीं चाहने वाले उग्रसेन के धर नामके पुत्र को मथुरा का राज्य दिया। इसी समय सूर्य पश्चिम समुद्र में निमग्न हुआ, उस समय श्री नेमिनाथ जी से विदा हुआ मातलि सारथि देवलोक में गया। कृष्ण और उनकी आज्ञा से अन्य सभी राजा अपनी-अपनी छावनी में गये। समुद्रविजय राजा वसुदेव के आगमन की राह देखने लगे।
(गा. 1 से 12) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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