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समक्ष देखने में भी शत्रु के सुभटों में से कोई भी समर्थ नहीं हुआ। प्रभु ने अकेले ही एक लाख मुकुटधारी राजाओं को भग्न कर दिया, क्योंकि उछलते महासमुद्र के आगे पर्वत क्या है? इस प्रकार पराक्रम बताने पर भी प्रतिवासुदेव वासुदेव से ही वध्य है। ऐसी मर्यादा होने से इन त्रैलोक्यमल्ल प्रभु ने जरासंध का हनन नहीं किया। श्री नेमिप्रभु रथ को घुमाते हुए शत्रुओं के सैनिकों को रोककर खड़े रहे। इससे उतने समय में यादव वीर उत्साहित होकर पुनः युद्ध करने लगे । इस समय सिंह जैसे हिरणों को मारे वैसे पांडवों के पूर्व वैर से अवशेष रहे कौरवों को मारने लगे। इतने में तो बलदेव ने भी स्वस्थ होकर हल ऊँचा करके युद्ध करके अनेक शत्रुओं को मार डाला ।
(गा. 412 से 435 )
इधर जरासंध ने कृष्ण को कहा 'अरे कपटी ! तू इतनी देर शृंगाल की तरह माया से ही जीता है। इस माया से ही कंस को मारा और माया से ही कालकुमार को मारा है। तू अस्त्र विद्या तो सीखा ही नहीं है, इससे संग्राम करता नहीं है। परंतु अरे कपटी ! आज मैं तेरे प्राण के साथ ही इस माया का अंत लाऊँगा और मेरी पुत्री जीवयशा की प्रतिज्ञा पूरी करूँगा । कृष्ण हंसकर बोले 'अरे राजा ! तू इस प्रकार गर्व के वचन किसलिए बोलता है ? यद्यपि मैं तो अशिक्षित ही हूँ, परंतु तू तो तेरी जो अस्त्रशिक्षा है, वही बता दे । मैं तो किंचित् मात्र भी मेरी आत्म प्रशंसा करता ही नहीं, परंतु इतना तो कहता हूँ कि तेरी दुहिता की अग्निप्रवेश रूप जो प्रतिज्ञा है, उसे मैं पूरी करूँगा । कृष्ण के इस प्रकार के वचन सुनकर जरासंध क्रोधित होकर बाण फेंकने लगा । तब अंधकार को सूर्य की भांति कृष्ण उनको काटने लगे। दोनों महारथी अष्टापद की तरह क्रोध करके धनुष के ध्वनि से दिशाओ में घोरगर्जना करते हुए युद्ध करने लगे।
(गा. 436 से 442)
उनके रणमर्दन से जलराशि समुद्र भी क्षोभ गए। आकाश में रहे हुए खेचर भी त्रासित हुए और पर्वत कंपायमान हुए । उनके पर्वत जैसे दृढ़ रथ के गमनागमन को नहीं सहन करती पृथ्वी ने भी क्षण में अपना सर्वंसहपन छोड़ दिया। विष्णु जरासंध के दिव्य बाणों को दिव्यबाणों से और लोहास्त्रों को लोहास्त्रों से सहज में काटने लगे । जब सर्व अस्त्र निष्फल हो गए तब क्रोध से भरे हुए जरासंध ने खिन्न होकर अन्य अस्त्रों से दुर्वार ऐसे चक्र का स्मरण
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व )
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