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दूसरे दिन प्रातः कृष्ण रूक्मिणी के घर गए, वहाँ जांबवती को उस दिव्य हार से भूषित देखकर कृष्ण अनिमेष नेत्र से उसकी तरफ देखने लगे। तब जांबवती बोली, 'स्वामिन् क्या देख रहे हैं ? मैं वही आपकी पत्नी हूँ। हरि बोले ‘देवी! यह दिव्य हार तुम्हारे पास कैसे आया ? जांगवती बोलो ‘आपके प्रसाद से ही। आपने ही तो दिया है क्या आप आपके देय को भी भूल गए? उसी समय जांबवती ने स्वयं के स्वप्न में दिखलाई दी सिंह की बात कही, तब कृष्ण बोले देवी तुमको प्रद्युम्न जैसा पुत्र होगा, ऐसा कहकर विष्णु स्व-स्थान पर चले गये।
__(गा. 29 से 32) समय आने पर सिंहनी की तरह जांबवती ने शांब नामके अतुल पराक्रमी पुत्र को जन्म दिया। शांब के साथ ही सारथि दारूक और सुबुद्धि मंत्री के जयसेन नाम का पुत्र हुआ। सत्यभामा के एक भानुक नामका पुत्र तो था ही, दूसरा गर्भाधान के अनुसार भीरू नामका पुत्र हुआ। कृष्ण की अन्य स्त्रियों के भी सिंहशाब के जैसे अति पराक्रमी पुत्र हुए। शांब मंत्री और सारथि पुत्रों के साथ वे अनुक्रम से बड़े होने लगा। और बुद्धिमंत होने से उसने लीलामात्र में सर्व कलाएँ हस्तगत कर ली।
(गा. 33 से 37) एक बार रूक्मिणी ने अपने भाई रूक्मि की वैदर्भी नाम की पुत्री को अपने पुत्र प्रद्युम्न के साथ विवाह कराने के लिए एक व्यक्ति को भेजकर नगर में भेजा। उसने वहाँ जाकर रूक्मि राजा को प्रणाम करके कहा कि 'आपकी पुत्री वैदर्भी को मेरे पुत्र प्रद्युम्न को दो। पूर्व में मेरा और कृष्ण का योग तो दैवयोग से हुआ था, परंतु अब वैदर्भी और प्रद्युम्न का संयोग तुम्हारे द्वारा ही हो। उस व्यक्ति के ऐसे वचन सुनकर पूर्व के वैर को याद करके रूक्मि ने बोला कि 'मैं अपनी पुत्री को चंडाल को हूँ तो ठीक, परन्तु कृष्ण वासुदेव के कुल में दूँ, वह योग्य नहीं।' दूत ने आकर रूक्मिणी को रूक्मि के वचनों को यथार्थ रूप से कह सुनाया जिससे अपमानिक रूक्मिणी रात्रि में मूर्छा से कमल की तरह ग्लानि को प्राप्त हो गई। प्रद्युम्न ने उसको इस प्रकार देखकर पूछा कि ‘माता! आप खेद को क्यों प्राप्त हुई हो?' तब रूक्मिणी ने मन के भाव रूप अपने भाई का वृत्तांत कह सुनाया। प्रद्युम्न बोला, 'हे माता! आप खेद मत करो, वह मेरा मातुल सामवचन के योग्य नहीं है, इसी से मेरे पिता ने उस योग्य ही कार्य किया
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)