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क्या काम करूँ ?' कृष्ण ने कहा कि 'सत्यभामा को प्रद्युम्न के जैसा पुत्र दो ।' नैगमेषी देव बोला कि ‘जिस स्त्री से तुमको पुत्र की इच्छा हो उस स्त्री को हार पहना कर समागम करना, जिससे उसको इच्छित पुत्र की प्राप्ति होगी । इस प्रकार हार देकर नैगमेषी देव अन्तर्ध्यान हो गया । वासुदेव कृष्ण ने हर्षित होकर सत्यभामा को शय्यास्थान में आने का कहलाया । प्रज्ञप्ति विद्या ने यह
प्रद्युम्न को बता दी। इसलिए उसने अपनी माता से कहा कि 'मेरे जैसे पुत्र की इच्छा से वह हार जाकर तुम ले लो। रूक्मिणी बोली, 'वत्स! तेरे जैसे एक पुत्र से ही मैं कृतार्थ हूँ, क्योंकि स्त्रीरत्न को बार-बार प्रसव नहीं होता । प्रद्युम्न ने कहा, तो तुम्हारी सभी सपत्नियों में तुमको कौनसी सपत्नि अधिक प्रिय है, वह बताओ कि जिससे उसको ऐसा पुत्र हो वैसा करूं । रूक्मिणी बोली, 'वत्स! जब मैं तेरे वियोग से दुःखी थी उस समय मेरी सपत्नि जांगवती मेरे समान दुःखी होकर मेरे दुःख में भाग लेती थी। ऐसा कहकर प्रद्युम्न की आज्ञा से रूक्मिणी ने जांगवती को बुलाया । तब प्रद्युम्न ने विद्या से उसका रूप सत्यभामा जैसा कर दिया। तब रूक्मिणी ने उसे समझाकर हरि के मंदिर में भेजा । सायंकाले कृष्ण ने आकर उसे हार देकर उसे भोगा । उसी समय महाशुक्र देवलोक से च्यवकर कैटभ का जीव सिंह के स्वप्न से सूचित होकर जांबवती के उदर में उत्पन्न हुआ। जांबवती हर्षित होकर अपने स्थान में गई । इतने में सत्यभामा अपनी बारी लेने के लिए कृष्ण के मंदिर में आइ । उसे देखकर कृष्ण ने सोचा कि ‘अहो! स्त्रियों को कितनी भोग की तृष्णा होती है ?' यह सत्यभामा अभी तो यहाँ से गई थी, और अभी फिर वापिस आ गई है अथवा क्या किसी दूसरी स्त्री ने सत्यभाषा का रूप लेकर मुझे छला है। अब तो जो हो गया सो हो गया, परंतु सत्यभामा को खिन्न नहीं करना है । ऐसा सोचकर कृष्ण ने उसके साथ क्रीड़ा की। यह समाचार प्रद्युम्न को मिले इसलिए उसने कृष्ण की क्रीड़ा के समय ही विश्व को क्षोभ उत्पन्न करे, ऐसी कृष्ण की भेरी बजा दी । जिससे यह भेरी किसने बजा दी ? ऐसा क्षोभ पाकर कृष्ण ने पूछा। तब सेवकजन ने कहा कि रूक्मिणी के कुमार प्रद्युम्न ने बजाई है । तब कृष्ण हास्य करते हुए बोले, 'जरूर तब इसने ही सत्यभाषा को भी छला है। क्योंकि सोंत का पुत्र दस सौत जैसा होता है। इस भेरी के नाद से किंचित् भययुक्त संभोग से सत्यभामा को भीरु पुत्र भवितव्यता कभी अन्यथा नहीं हो।
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व )
(गा. 8 से 28)
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