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तुझे गाय की तरह चाण्डाल के द्वार पर डाल दिया। वास्तव में कोप भी चाण्डाल है, जिससे मेरे हितेच्छु वर्ग ने भी मेरे पास से इस पुत्री को चंडाल को दिलवा दिया। प्रद्युम्न के लिए रूक्मिणी बहन ने मेरी पुत्री की मांग भी की थी, तो भी मैंने क्रोधांध होकर उसे दी नहीं। मुझ जैसे मंद बुद्धि वाले को धिक्कार है। इस प्रकार राजा रूदन कर रहा था कि इतने में वाजित्रों का गंभीर नाद सुनाई दिया। राजा ने पूछा ‘यह नाद कहाँ से आ रहा है ?' ऐसा सेवकों से पूछा। राजपुरुषों ने तुरंत तलाश करके वापिस आकर कहा कि ‘राजेन्द्र! प्रद्युम्न और शांब वैदर्भी के साथ अपने नगर के बाहर एक विमान जैसे प्रासाद में देवताओं की तरह रह रहे हैं। चारण उनकी स्तुति कर रहे हैं, और वे उत्तम वाजित्रों से मनोहर संगीत करवा रहे हैं। उसका यह नाद यहाँ सुनाई दे रहा है।' तब रूक्मि राजा ने हर्षित होकर उनको अपने घर बुलाया और अपने भाणजे प्रद्युम्न की जंवाई के रूप में स्नेह से विशेष रूप से आवभगत की। पश्चात् रूक्मी राजा की इजाजत लेकर वैदर्भी और शांब को लेकर प्रद्युम्न द्वारिका में आया। वहाँ रूक्मिणी के नेत्रों को अतीव प्रसन्नता हुई। नवयौवन वाला प्रद्युम्न नवयौवनवती अभिनव वैदर्भी के साथ सुखपूर्वक क्रीड़ा करता हुआ, सुख से रहने लगा। और उधर हेमांगद राजा की वेश्या से हुई सुहिरण्या नाम की पुत्री जो कि रूप में अप्सरा जैसी थी, उसके साथ परण कर शांब भी सुखपूर्वक क्रीड़ा करता हुआ रहने लगा।
(गा. 76 से 84) शांब हमेशा क्रीड़ा करता हुआ भीरूक को मारता था और चूत में बहुत सा धन हरा हरा कर दिला देता था। ऐसा करने पर एक दिन भीरूक रूदन करता हुआ सत्यभामा के पास आया। तब सत्यभामा ने शांब का ऐसा बर्ताव कृष्ण को बताया। कृष्ण ने जांबवती से यह बात की। तब जांबवती बोली, 'हे स्वामिन! मैंने इतने समय में शांब का ऐसा कोई बेतुकी बर्ताव सुना नहीं और आप यह क्या कह रहे हैं? तब कृष्ण ने कहा 'सिंहनी तो अपने शावक को सौम्य और भद्रीक ही मानती है,' परंतु उसकी क्रीड़ा को तो हाथी ही जानते हैं। इसलिए तुझे देखना हो तो चल। मैं तुझे तेरे पुत्र की करतूत बताऊँ। कृष्ण ने आहीर का रूप धारण किया और जांबवती को आहीर की स्त्री का रूप धारण कराया। दोनों ही जने छाछ बेचने के लिए द्वारिका में गये। तब उनको शांब कुमार ने देखा। शांब ने आहीरणी को कहा- 'अरे बाई! यहाँ आ, मुझे तेरा गोरस लेना है।' यह सुनकर वह आहिरणी शांब के पीछे-पीछे गई। आहीर भी
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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