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धायमाता ने सत्यभामा से कही। सत्यभामा ने दूत भेजकर जितशत्रु राजा से उसकी मांग की। जितशत्रु राजा ने कहा कि यदि सत्यभामा हाथ पकड़ कर मेरी कन्या को द्वारिका नगरी में ले जाय और विवाह के समय भीरूक के हाथ के ऊपर मेरी कन्या का हाथ रखे तो मैं मेरी कन्या को दूं। दूत ने आकर सर्व बात सत्यभामा को बतलाई। उसने ऐसा करना स्वीकार करके सत्यभामा तुरंत ही उनकी छावणी में आई। उस समय शांब ने प्रज्ञप्ति विद्या को कहा कि 'यह सत्यभामा और उसके परिजन मुझे कन्या रूप में देखें और दूसरे नगर जन शांब रूप में देखें, ऐसा करो। तब प्रज्ञप्ति ने ऐसा ही किया। सत्यभामा ने शांब को दक्षिण हाथ से पकड़ कर द्वारिका में प्रवेश कराया। यह देख नगर की स्त्रियाँ कहने लगी, 'अहो, देखो कैसा आश्चर्य! सत्यभामा भीरूक के विवाहोत्सव में शांब को हाथ से पकड़कर ला रही है।' शांब सत्यभामा के महल में गया, वहाँ उसने कपटबुद्धि से पाणिग्रहण के समय में भीरूक के दक्षिण हाथ पर अपना वाम हाथ रखा। और एक कम सौ कन्याओं के बायें हाथ पर अपना दाहिना हाथ रखा। इस रीति से शांब ने विधिपूर्वक अग्नि की प्रदक्षिणा दी। कन्याएँ अति रूपवंत शांब को देखकर बोली कि 'अरे कुमार! वास्तव में हमारे पुण्य के उदय से विधि के मिलाप से कामदेव जैसे आप हमको पतिरूप में प्राप्त हुए हो।' उनके साथ विवाह हो जाने के पश्चात् शांब वासगृह में गया। भीरूक भी शांब के साथ वहां आ रहा था, तो शांब ने भृकुटि चढ़ाकर उसे डराया, अतः वह वहाँ से भाग गया। उसने आकर सत्यभामा से यह बात कही। परंतु सत्यभामा ने इसे माना नहीं। फिर स्वयं ने आकर वहाँ देखा, तो शांब कुमार वहाँ बैठा हुआ दिखा। शांब ने सपत्नी माता को प्रणाम किया। तब सत्यभामा कुपित होकर बोली- 'अरे निर्लज्ज! तुझे यहाँ कौन लाया? शांब बोला- माता! तुम्हीं मुझे हाथ पकड़ कर यहाँ लाई हो और मेरा इन निन्याणवें कन्याओं के साथ विवाह भी तुमने ही कराया है। इस विषय में सभी द्वारिका के लोग मध्यस्थ हैं। इस प्रकार कहा, तब सत्यभामा वहाँ आये सभी नगरजनों को पूछने लगी, उन्होंने कहा कि ‘देवी! कोप मत करो। हमारी नजरों से हमने देखा है कि आप शांब को हाथ पकड़ कर लेकर आई हो और उसका ही इन कन्याओं के साथ विवाह कराया है। इस प्रकार लोगों की साक्षी सुनकर सत्यभामा 'अरे तू कपटी, कपटी का पुत्र, कपटी का कनिष्ट भाई, कपटी ही होगा। जिससे तूने मुझे कन्या के रूप में छला है, ऐसा कहकर रोष करके वहाँ से चली गई। कृष्ण ने सर्व लोगों के
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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