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जरासंध अकेले कृष्ण के ही समक्ष तृण समान है, परन्तु वैताढ्यगिरि पर अनेक खेचर जरासंध के पक्ष के हैं, वे यहाँ आवे नहीं तब तक हमको उनके सामने, उनको वहीं पर ही रोकने के लिए जाने की आज्ञा दीजिए। हमारे अनुज बंधु वसुदेव को हमारे सेनापति रूप में स्थापित करके शांब, प्रद्युम्न सहित हमारे साथ भेजो तो सर्व विद्याधरों को जीता हुआ ही समझो। ऐसा सुनकर कृष्ण की संभति से समुद्रविजय ने अपने पौत्र प्रद्युम्न और शांब सहित वसुदेव को खेचरों के साथ भेजा। उस समय अरिष्टनेमि ने अपने जन्म स्नात्र के समय देवताओं द्वारा भुजा पर बांधी हुई अस्त्र वारिणी औषधि वसुदेव को दी।
(गा. 197 से 206) यहाँ मगधपति जरासंध के पारू हंसक नाम का एक मंत्री अन्य मंत्रियों को साथ लेकर आया था, उसने विचार करके जरासंध को कहा 'हे राजन्! पूर्व में कंस ने विचार करे बिना काम किया था, इससे उसे उसका बुरा फल मिला था, क्योंकि मंत्र शक्ति के बिना उत्साहशक्ति और प्रभुशक्ति के परिणाम अच्छे नहीं आते शत्रु अपने से छोटा हो तो भी उसे अपने से अधिक ही मानना, ऐसी नीति है तो यह महाबलवान् कृष्ण तो आपसे अधिक ही है, यह सामने दिख रहा है। फिर रोहिणी के स्वयंवर में कृष्ण के पिता दसवें दशार्ह वसुदेव को सर्व राजाओं ने निस्तेज करने वाले के रूप में तुमने स्वयं ने भी देखा है। उस समय उन वसुदेव के बल के समक्ष कोई राजा भी समर्थ हुआ नहीं था। उनके ज्येष्ठ बंधु समुद्रविजय ने तुम्हारे सैन्य के सैनिकों की रक्षा की थी। फिर द्यूतक्रीड़ा में कोटि द्रव्य जीत लेने से और तुम्हारी पुत्री को जीवित करने में वसुदेव को पहचान कर तुमने सेवकों को मारने भेजा था। परन्तु अपने प्रभाव से यह वसुदेव मरण को प्राप्त नहीं हुआ। ऐसे बलवान् वसुदेव से भी ये बलराम और कृष्ण हुए हैं और ये इतनी वृद्धि को प्राप्त हुए हैं। साथ ही जिनके लिए कुबेर ने सुंदर द्वारकापुरी रची है। ये दोनों रथी वीर हैं कि जिनकी शरण में दुःख के वक्त में महारथी युधिष्ठिर आदि पांडव भी आए हैं। उसके पुत्र प्रद्युम्न और शांब दूसरे रामकृष्ण जैसे हैं। इधर भीम और अर्जुन भी भुजा के बल में यमराज से भी भयंकर हैं, अधिक क्या कहें ? उनमें जो ये एक नेमिकुमार हैं, वे अपने भुजदंड के द्वारा पुथ्वी को छत्र रूप करने में समर्थ है। आपके सैन्य में शिशुपाल और रूक्मि अग्रणी हैं। उन्होंने भी रूक्मिणी के हरण में हुए रण में कृष्ण का बल देखा ही है। कौरवपति दुर्योधन और गंधारपति शकुनि तो श्वान
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)