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की अनुजा बहन कुंती द्वारका में ले गई । दिव्यास्त्रों से युद्ध करने वाले और विद्या एवं भुजबल से उग्र वे प्रथम समुद्रविजय राजा के घर आए।
(गा. 360 से 366)
राजा समुद्रविजय और अक्षोभ्य आदि उनके भाइयों ने अपनी बहन और भाणजों का स्नेहपूर्वक अच्छी तरह सत्कार किया । दशार्ह बोले, हे बहन ! उन तुम्हारे भागीदारों कौरवों के पास से भाग्य योग से संतान सहित तुम जीवित आ गई, यही अच्छा हुआ। कुंती भी बोली कि जब मैंने सुना कि तुम पुत्रादिक परिवार सहित जीवित हो, तभी मैं भी संतान सहित जिंदा रही हूं और बलराम और कृष्ण का लोकोतर चरित्र सुनकर हर्षित होती हुई, उनको देखने की उत्सुक मैं यहाँ आई हूँ।
(गा. 367 से 370 )
पश्चात भाईयों ने कहा तब कुंती पुत्र सहित सभा में आई । उनको देखकर बलराम और कृष्ण ने खडे होकर उनको नमस्कार किया । पश्चात बलराम कृष्ण और पांडवों के क्रमानुसार परस्पर नमस्कार और आलिंगन करके यथायोग्य स्थान पर बैठे । कृष्ण बोले आप यहां अपने ही घर आए, यह बहुत अच्छा किया क्योंकि आपकी और यादवों की लक्ष्मी परस्पर साधारण है । युधिष्ठिर बोले हे कृष्ण ! जो तुमको माने उनके लक्ष्मी सदा दासी रूप है और जिनको तुम मानो उनकी तो बात ही क्या करनी ? हमारे मातृकुल ननिहाल को जब से तुमने अलंकृत किया है तब से हम यदुकुल और अपने आप को सर्व से विशेष पराक्रमी मानते हैं। इस प्रकार विविध रूप से आलाप करने के पश्चात कृष्ण ने कुंती और उसके पुत्रों का सत्कार करके उनको अलग अलग निवास स्थान दिया । दशार्हो ने लक्ष्मीवती वेगवती सुभद्रा विजया और रति नाम की अपनी पाँचों कन्याओं को अनुक्रम से पांचों पांडवों को दी । यादवों और बल राम कृष्ण से पूजित वे सुखपूर्वक वहाँ रहने लगे।
(गा. 371 से 378)
यहां संवर विद्याधर के घर प्रद्युम्न बड़ा होने लगा । उसने सर्वकलाओं को हस्तगत किया। उसके युवा स्वरूप को देखकर संवर विद्याधर की स्त्री कनकवी कामातुर हो गई । वह सोचने लगी कि इसके जैसा सुंदर पुरूष कोई विद्याधर में नहीं है। देव भी ऐसा हो मुझे नहीं लगता । तो मनुष्य की तो बात ही क्या है ?
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व )
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