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मार्ग में सत्यभामा की एक कुब्जा दासी मिली। तो उसे बरू की लता की तरह विधा से सरल अंग वाणी कर दिया। वह दासी प्रद्युम्न के पैरों में गिर कर बोली कि तुम कहां जा रहे हो ? तब प्रद्युम्न बोला जहाँ इच्छानुसार भोजन मिलेगा वहाँ जा रहा हूँ। दासी बोली, सत्यभामा देवी के घर पुत्र के विवाह के लिए तैयार किये हुए मोदक आदि तुमको मैं यथारूचि दे दूँगी। तब प्रद्युम्न कुब्जा के साथ सत्यभामा के घर आया। तोरणद्वार मूलद्वार के पास उसे खड़ा करके कुब्जा सत्यभामा के पास गई तब सत्यभामा ने पूछा कि तू कौन है ? दासी बोली मैं कुब्जा हूँ। सत्यभामा ने कहा तुझे सीधी किसने कर दिया? तब दासी ने उस ब्राह्मण का वृत्तांत कहा। सत्यभामा ने कहा, वह ब्राह्मण कहाँ है ? दासी बोली कि उसे मैं तोरणद्वार के पास खडा रख कर तुम्हारे पास आई हूँ। तब उस महात्मा को यहां ला ऐसी सत्यभामा ने आज्ञा दी। तब वेग से दौड़कर वह दासी उस कपटी ब्राह्मण को ले आई। वह आशीष देकर सत्यभामा के पास बैठा। तब सत्यभामा ने कहा, हे ब्राह्मण! मुझे रूक्मिणी से अधिक रूपवाली कर दो। कपटी विप्र ने कहा, तुम तो बहुत रूपवान दिखती हो, तुम्हारे जैसा किसी दूसरी स्त्री का रूप मैंने कहीं भी देखा नहीं है। सत्यभामा बोली हे भद्र! तुम कहते हो वह सत्य है, तथापि मुझे रूप में विशेष अनुपम करो। ब्राह्मण ने कहा यदि सर्व से रूप में
अधिक होना हो तो पहले विरूप हो जाओ क्योंकि मूल से विरूपता हो तो विशेष रूप हो सके। तब सत्यभामा ने पूछा कि पहले मैं क्या करूँ?
(गा. 426 से 435) ब्राह्मण बोला पहले मस्तक मुंडाओ और फिर स्याही से सारी देह पर विलेपन करके सिले हुए जीर्ण वस्त्र पहन कर मेरे सामने आओ। तब मैं लावण्य
और सौभाग्य की शोभा का आरोपण कर दूंगा। विशेष रूप को चाहने वाली सत्यभामा ने शीघ्र ही वैसा ही किया। तब कपटी ब्राह्मण बोला मैं बहुत ही क्षुधातुर हूँ अतः अस्वस्थ हुआ मैं क्या कर सकता हूँ? सत्यभामा ने उसे भोजन करने के लिए रसोइये को आदेश दिया। तब उस ब्राह्मण ने सत्यभामा के कान में इस प्रकार उपदेश दिया कि हे अनधे! जब तक मैं भोजन करूं, तब तक कुलदेवीक के सामने बैठकर तुम रूडू बुडू रूडू बुडू ऐसा मंत्र जाप करो। सत्यभामा तुरंत कुलदेवी के समक्ष बैठकर मंत्रजाप करने लगी। इधर प्रद्युम्न ने विद्या शक्ति के द्वारा सारी रसोई समाप्त कर दी। तब हाथ में जल कलश लेकर रसोई बनाने वाली स्त्रियाँ सत्यभामा से डरती डरती ब्राह्मण से बोली- अब तो उठो तो ठीक।
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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