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करने लगी। अन्य आर्याएं उसे ऐसा करने से रोकती तब वह चित में विचारती कि जब में पूर्व में गृहस्थ थी तब तो ये आर्याएं मुझे मान सम्मान देती थी, परंतु अब मैं उनके साथ भिक्षुणी हुई तब वे जैसे तैसे मेरा तिरस्कार कर देती हैं। इसलिए मुझे इनके साथ रहने की क्या आवश्यकता है? ऐसा सोचकर वह अन्य दूसरे उपाश्रय में रहने लगी और एकाकी स्वतंत्र रूप से विचरती हुई चिरकाल तक व्रतों को पालने लगी। प्रति आठ मास की संलेखना करके पूर्व पाप की आलोचना किए बिना वह मृत्यु को प्राप्त हुई और नव पल्वोपम की आयुष्य वाली सौधर्म कल्प में देवी हुई। वहाँ से च्यवकर यह द्रोपदी हुई है और पूर्व भव में कृत मनोभाव से उसके पांच पति हुए हैं तो इसमें क्या विस्मय है?
(गा. 350 से 355) इस प्रकार जब मुनि ने कहा, उस समय आकाश में साधु द्वारा, ऐसी वाणी हुई। इसके पांच पति होना उपयुक्त है, ऐसा कृष्ण आदि कहने लगे। पश्चात स्वंयवर में आए हुए सभी राजाओं और स्वजनों के साथ बहुत बड़े महोत्सव से पांचों पांडवों ने द्रोपदी से विवाह किया पांडु राजा दस दशाह को कृष्ण को और अन्य राजाओं को मानो विवाह के लिए ही बुलाया हो, वैसे मानपूर्वक अपने नगर में ले गए। वहाँ चिरकाल तक उनकी आदरपूर्वक भक्ति की। जब दशार्ह और राम कृष्ण आदि ने इजाजत मांगी तब उन सभी को एवं दूसरे अन्य राजाओं को विदा किया।
(गा. 356 से 359) पांडू राजा की युधिष्ठिर को राज्य देकर मृत्यु हो गई और माद्री ने भी अपने दोनों पुत्र कुंती को सौंप कर पांडुराजा के पीछे मृत्यु प्राप्त की। जब पांडुराजा दिवंगत हुए तब मत्सर वाले धृतराष्ट के पुत्र पांडवों से शत्रुभाव रखते
और वे दुष्ट छल बल से राज्य लेने को आतुर हो गये। दुर्योधन ने विनयादि गुणों से सर्व वृद्धों को संतुष्ट किया और पांडवों को चूत में जीत लिया। युधिष्ठिर लोभ से धूत में राज्य और अंत में द्रोपदी को भी हार गये और दुर्योधन ने सब जीत कर अपने अधिकार में कर लिया। परंतु बाद में क्रोध से लाल हुए नेत्रों वाले भीम से भयभीत होकर दुर्योधन ने द्रोपदी को उनको वापिस लौटा दिया। धृतराष्ट्र के पुत्रों ने अपमान करके पांडवों को देश से निकाल दिया, और उन्होंने वनवास स्वीकारा। लंबे समय तक जंगलों में भटकते उन पाँच पांडवों को अंत में दशार्ह
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)