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जिस प्रकार स्वंय द्वारा सिंचित वृक्ष का फल स्वंय आस्वादन करे उसी प्रकार मेरे द्वारा पालित पोषित इस प्रद्युम्न के यौवन का भोग रूपी फल मुझे ही भोगना चाहिये नहीं तो मेरा जन्म ही वृथा है । ऐसा विचार करके उसने एक बार मधुर वाणी से प्रद्युम्न को कहा कि यहाँ उत्तम श्रेणी में नलपुर नाम का नगर है उसमें गौरी वंश का निषध नाम का राजा है, उस राजसिंह की मैं पुत्री हूँ। उनके नैषधि नामक एक पुत्र है। मेरे पिता ने मुझे गौरी विद्या दी है और संवर विद्याधर ने मुझे प्रज्ञप्ति विद्या देकर मुझसे विवाह किया है । मुझ में अनुरक्त संवर अन्य किसी युवती को चाहता नहीं है।
(गा. 379 से 384)
मैंने जो पूर्वोक्त दोनों विद्यासिद्ध की हैं, उसके बल से संवर को यह जगत तृण समान लगता है। अब मैं तुझ पर अनुरागी हुई हूँ अतः तू मेरा भोग कर । अज्ञान से भी मेरे प्रेम को भंग मत करना । प्रद्युम्न बोला अरे माता शांत हो, आप यह क्या बोलती है? आप माता हो और मैं आपका पुत्र हूं, अतः आप हम दोनों के नरक वास के समान यह बात छोड़ दें । कनकमाला बोली - तू मेरा पुत्र नहीं है, तुझे तो मार्ग में किसी ने छोड़ दिया था। अग्निज्वाल पुर से आते संवर विद्याधर यहाँ लाया है। उसने मुझे तेरा पालन पोषण करने को कहा है। इसलिए तू किसी और का पुत्र है। इससे तू निःशंक होकर तेरी इच्छानुसार मेरे साथ भोगों को भोग। ऐसे उस स्त्री के वचन सुनकर प्रद्युम्न ने विचार किया कि मैं इस स्त्री के पाश में फँस गया हूँ अब मैं क्या करूँ ? वह विचार करके बोला- रे भद्रे ! जो मैं ऐसा कार्य करूँगा तो संवर और उसके पुत्र मुझे जिंदा नहीं छोडेंगे ।
(गा. 385 से 390)
कनकमाता बोली हे सुभग ! उसका भय मत रख मेरे पास जो गौरी और प्रज्ञप्ति ये दो विद्याएँ है, वह तू ग्रहण कर और जगत में अजय हो जा। मुझे कभी भी ऐसा अकृत्य करना नहीं है, ऐसा अंतःकरण में निश्चय करके प्रद्युम्न बोला कि प्रथम तो मुझे वे दो विद्याएँ तो दो फिर तुम्हारा वचन मानूँगा। कामातुर हुई कनकमाला ने गौर और प्रज्ञप्ति नाम की दोनों विद्या उसे दी। तब प्रद्युम्न ने पुण्योदय के प्रभाव से उन्हें शीघ्र ही साध लिया । पुनः कनकमाला ने क्रीड़ा करने की प्रार्थना की, तब प्रद्युम्न बोला- हे अनधे! पहले तो तुमने मेरा पालन पोषण किया इसलिए तो माता हो ही, परंतु विद्यादान करने से तो गुरू हो गई अतः इस
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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