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षष्ठम् सर्ग
अब द्वारका में कृष्ण वासुदेव राम सहित दशार्कों को अनुसरण करते और यादवों के परिवार से परिवृत सुखपूर्वक क्रीड़ा करते हुए रहने लगे। साथ ही दशार्हो एवं राम कृष्ण को हर्षित करते हुए अरिष्टनेमि भगवान श्री अनुक्रम से बढने लगे। अरिष्टनेमि की अपेक्षा सभी बंधु बड़े थे, परंतु अरिष्टनेमि के साथ वे छोटे होकर क्रीड़ागिरी पर तथा क्रीडोद्यान आदि भूमि में क्रीड़ा करने लगे। प्रभु जब दस धनुष ऊँची काया वाले हुए और यौवन वय को प्राप्त किया तब भी वे जन्म से ही काम विजेता होने से अविकारी मन वाले थे। माता पिता और राम कृष्ण आदि भातागण हमेशा कन्या से परणने के लिए प्रार्थना करते परंतु प्रभु स्वीकार नहीं करते। राम और कृष्ण अपने पराक्रम से अनेक राजाओं को वश में करते एवं शक तथा ईशानेंद्र की तरह दोनों बंधु प्रजा का पालन करते।
(गा. 1 से 6) एक समय नारद जी घूमते घूमते कृष्ण के मंदिर में आए। राम तथा कृष्ण ने विधि से उनकी पूजा की। पश्चात वे अंतःपुर में गए। वहाँ सत्यभामा दर्पण में देख रही थी। उसमें व्यस्त होने से उसने आसन आदि द्वारा सत्कार करके पूजा नहीं की, इससे क्रोधित होकर नारद जी वहाँ से चले गये और मन में विचार करने लगे कि कृष्ण के अंतःपुर की सभी स्त्रियां सदैव मेरी पूजा करती है। परंतु यह सत्यभामा पति के प्रेम के कारण रूप और यौवन से गर्वित हो रही है। इससे दूर से ही मुझे देखकर भी खड़ी तो नहीं हुई, मेरी और दृष्टि भी नहीं की, इसलिए इस सत्यभामा से अधिक रूप वाली सपत्नि सौत लाकर इसे संकट में डाल दूं। ऐसा सोचते हुए नारद कुंडिनपुर नगर में आए।
(गा. 7 से 11)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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