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सर्व चर्म रज्जु को भक्षण करा हुआ देखा, पश्चात वह घर गया। मृत्यु के पश्चात वह अपनी पुत्रवधु के उदर से पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। वहाँ उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ, इससे उसे ज्ञात हुआ कि यह मेरी पुत्रवधू मेरी माता हुई और मेरा पुत्र वह मेरा पिता हुआ है, तो अब मैं उनको किस प्रकार संबोधन करूँ? ऐसा विचार आने पर वह कपटपूर्वक जन्म से ही गूगा होकर रहा। यदि इस वृत्तांत के विषय में तुमको प्रतीति न होती हो तो उस गूंगे किसान के पास जाकर उसे पूछो, तब वह मौन छोडकर तुमको सर्व वृतांत बता देगा। तब लोग उस मूक किसान को वहाँ ले आए। मुनि ने उसको कहा कि तेरे पूर्व भव का वृत्तांत पहले से सुना दे। इस संसार में कर्म के वश पुत्र पिता हो जाता है और पिता पुत्र भी हो जाता है ऐसी अनादि स्थिति है, इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है। इसलिए पूर्व जन्म के संबंध से होनी वाली लज्जा और मौन छोड़ दे। तब अपना पूर्व संबंध बिल्कुल सही कहने से हर्षित हो उस किसान ने मुनि को नमस्कार किया।
(गा. 162 से 170) सर्व के सुनते हुए पूर्वजन्म की सर्व हकीकत कह सुनाई। वह सुनकर अनेक लोगों ने मुनि से दीक्षा ले ली। वह कृषक भी प्रतिबोध को प्राप्त हुआ। और अग्निभूति और वायुभूति लोगों के उपहास का भाजन होने से खिन्न होकर घर चले गये। फिर वे उन्मत ब्राह्मण वैर धारण रात्रि को खड्ग लेकर उन मुनि को मारने के लिए गये। वहाँ उस समन यक्ष ने उनको स्तंभित कर दिया। प्रातः सर्व लोगों को उस स्थिति में देखा। उनके माता पिता उनको स्तंभित देखकर क्रंदन करने लगे। उस समय सुमन यक्ष प्रत्यक्ष होकर उनको कहने लगा कि ये पापी दुर्भति मुनि को मारने की दुर्भावना से रात्रि में आये थे इसलिए मैंने इन्हें स्तंभित कर दिया। अब यदि ये दीक्षा लेना स्वीकार करें तो ही मैं इनको छोडूंगा अन्यथा छोडूंगा नहीं। उन्होंने कहा हम से साधुधर्म की पालना होना मुश्किल है, इससे हम श्रावक के योग्यधर्म का आचरण करेंगे। इस प्रकार उनके कहने से देवता ने उनको छोड़ दिया। तब से वे जैनधर्म की यथाविधि पालना करने लगे। परंतु उनके माता पिता ने तो जरा भी जैन धर्म को अंगीकारा नहीं किया। अग्निभूति
और वायुभूति को मृत्यु के पश्चात सौधर्म कल्प में छः पल्योपम के आयुष्य वाले देवता हुए। वहाँ से च्यवकर हस्तिनापुर नगर में अर्हदास वणिक के घर पूर्णभद्र
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)