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मारने की इच्छा से वह दुष्ट एक टंकशिला पर उसे छोड़कर चला गया । परंतु वह अपने प्रभाव से सर्वांग अक्षत रहा। उसे कालसंवर विद्याधर अपने घर ले गया। सोलह वर्ष के अंत में उसका रूक्मिणी के साथ मिलन होगा।
(गा. 216 से 227)
इस प्रकार प्रद्युम्न के पूर्वभव का वृतांत सुनकर रूक्मिणी को पुत्र का वियोग किस कर्म से हुआ ? ऐसा नारद ने पूछा । तब श्री सीमंधर प्रभु ने उसके पूर्व भव का वृत्तांत कहा
(गा. 228)
इसी जंबूद्वीप में भरतक्षेत्र में मगध देश में लक्ष्मीग्राम नामक एक गाँव में सोमदेव नामक एक ब्राह्मण रहता था । उसके लक्ष्मीवती नाम की स्त्री थी । एक बार वह लक्ष्मीवती उपवन में गई। वहाँ मोर का अंडा पडा था । उस अंडे का उसने कुंकुम वाले हाथ से स्पर्श किया। उसके स्पर्श से उस अंडे का वर्ण और गंध बदल गया। इससे उसकी माता मयूरी ने उसे अपना नहीं समझ कर सोलह घड़ी तक उसे सेवा नहीं । उसके बाद अकस्मात वर्षा बरसने से वर्षा के जल से धुलकर वह अंडा अपने मूल स्वरूप में आ गया। जिससे उसे पहचान कर उसकी माता ने उसको पोसा। तब योग्य समय पर उसमें से मोर हुआ । पुनः लक्ष्मीवती वहाँ आई, उस समय मयूर के रमणीय बच्चे को देखकर मयूरी के रूदन करने पर भी उसको पकड़ लिया और अपने घर लाकर उसे पिंजरे में डाल दिया । प्रतिदिन खानपान से उसे प्रसन्न करके उसने उसे ऐसा नृत्य सिखाया कि वह सुंदर नृत्य करने लगा। उसकी माता मयूरी करूण स्वर में पुकारती, अपने प्यारे बच्चे के स्नेह से होने पर भी उस प्रदेश को छोड़ सकी नहीं । फिर लोगों ने आकर लक्ष्मीवती को कहा कि तुम्हारा कौतुक, पूर्ण होता नहीं है पंरतु उसकी माता मयूरी बिचारी उसके विछोह में मरी जा रही है। इसलिए उसके बच्चे को छोड़ दो। लोगों के कहने से उसे दया आई, तब सोलह मास के उस मोर के युवा बच्चे को उसने जहाँ था, वहीं पर रख दिया। इस कृत्य से उस ब्राह्मणी ने प्रमाद द्वारा सोलह वर्ष का पुत्र के विरह का विशाल वेदनीय कर्म का बंध किया ।
(गा. 229 से 238 )
एक बार वह लक्ष्मीवती अपने विभूषित रूप को दर्पण में देख रही थी, इतने में समाधिगुप्त नाम के एक मुनि भिक्षा के लिए उसके घर में आए। तब
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व )
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