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इंद्र की आज्ञा से कुबेर ने उस स्थान पर बारह योजन लंबी और नौ योजन विस्तार वाली रत्नमयी नगरी बनाकर दी। अट्ठारह हाथ ऊँचा, नौ हाथ भूमि में स्थित और बारह हाथ चौडा, चारों ओर रकई वाला उसके आस पास किला बनाया। उसमें गोल चोको, गिरिकूटाकार और स्वास्तिक के आकार का सर्वतोभद्र मंदर, अवंतस और वर्द्धमान ऐसे नाम वाले एक मंजिला, दुमंजिला, तिमंजिला
आदि मंजिल वाले लाखों महल बनाये। उनके चौक में, त्रिक के विचित्र रत्न माणिक्य द्वारा हजारों जिन चैत्य निर्मित करो। अग्निदिशा में सुवर्ण के किले वाला स्वास्तिक के आकार का समुद्रविजय राजा के लिए महल बनाया। उसके पास अक्षोभ्य और स्तमित के नंदार्वत और गिरिकूटाकार दो प्रासाद किले सहित बनाये। नैऋत्य दिशा में सागर के लिए आठ अंश वाला ऊँचा प्रासाद रचा और पांचवें छठे दशार्ह के लिए वर्धमान नाम के दो प्रासाद रचे। ईशान दिशा में कुबेरच्छद नाम का वसुदेव के लिए प्रासाद रचा। ये सर्व प्रासाद कल्पवृक्षों से परिवृत गजशाला और अश्वशालाओं के सहित किल्लेवाले, विशाल द्वार वाले आकर ध्वज पताका की श्रेणियों द्वारा शोभित थे।
(गा. 399 से 410) उन सबके बीच में चौरस विशाल द्वार वाला पृथ्वीजय नामक बलदेव के लिए प्रासाद रचा और उसके समीप अट्ठारह मंजिल का और विविध गृह के परिवार सहित सर्वतोभद्र नाम का प्रासाद कृष्ण के लिए रचा गया। उन राम कृष्ण के प्रासाद के आगे इंद्र की सुधर्मा सभा जैसी सर्वप्रभा नाम की एक विविध माणिक्यमयी सभा रची। नगरी के मध्य में एक सौ आठ महाश्रेष्ठ जिनबिंबों से विभूषित मेरूगिरी के शिखर जैसा गवाक्ष वाला साथ ही विचित्र प्रकार की सुवर्ण की वेदिका वाला एक अर्हत का मंदिर विश्वकर्मा ने बनाया। सरोवर, दीर्घकाएँ, वापिकाएँ, चैत्यों, उद्यानों और रास्तें आदि सर्व अत्यंत रमणीय हैं जिसमें हों ऐसा एक रात दिवस में ही तैयार कर दिया। इस प्रकार की वासुदेव की द्वारिका नगरी देवताओं द्वारा निर्मित होने से इंद्रपुरी जैसी रमणीय बनी। उसके समीप में खैतगिरी दक्षिण में माल्यवान शैल पश्चिम में सोमनस पर्वत और उत्तर में गंधमादन गिरि था।
__ (गा. 411 से 418) पूर्वोक्त प्रकार से द्वारिका की रचना करके प्रातःकाल कुबेर ने आकर कृष्ण को दो पीतांबर नक्षत्रमाला हार मुकुट कौस्तुभ नाम की महामणि शार्ड
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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