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तुम जरासंध के समक्ष हाथी के सामने मेढा के समान हो ? उस वक्त कृष्ण ने क्रोध से कहा, अरे सोमक! हमारे पिता ने सरलता से तेरे स्वामी के साथ आज तक स्नेह संबंध रखा है, इससे क्या तेरा स्वामी बड़ा सामर्थ्यशाली हो गया है? यह जरासंध हमारा स्वामी नहीं है, परंतु उसके ऐसे वचनों से तो यह दूसरा कंस ही है। इसलिए यहाँ से जा और तेरी इच्छा मुताबिक अपने स्वामी को कह देना। कृष्ण के ऐसे वचन सुनकर सोमक ने समुद्रविजय से कहा हे दशार्हमुख! यह तुम्हारा पुत्र कुलांगार है फिर भी तुम इसकी अपेक्षा क्यों करते हो ? उसके ऐसे वचन से कोप से प्रज्वलित हुए अनाधृष्णि ने कहा अरे! बारबार हमारे पिता से पुत्रों की याचना करता हुआ तू शरमाता क्यों नहीं? अपने जवाई कंस के ही वध से तेरा स्वामी इतना दुखी हुआ है तो क्या हमारे छः भाइयों के वध से हम दुखी नहीं हुए ? अब ये पराक्रमी राम और कृष्ण और दूसरा अक्रूर आदि हम तेरे भाषण को सहन नहीं करेंगे। इस प्रकार अनाधृष्णि द्वारा तिरस्कृत एवं समुद्रविजय द्वारा अपेक्षित वह सोमक राजा रोष विह्वल हो अपने स्थान पर चला गया।
(गा. 352 से 357) दूसरे दिन दशार्हपति ने अपने सर्व बांधवों को एकत्रित करके हितकारक क्रोष्टुकि नैतिक को पूछा हे महाशय! हमारा त्रिखंड भरतक्षेत्र के स्वामी जरासंध के साथ विग्रह हो गया है, तो अब इसका परिणाम क्या आएगा यह बताओ। कोष्टुकि बोला हे राजेंद्र! ये पराक्रमी राम और कृष्ण अल्पसमय में उसे मारकर त्रिखंड भरत के अधिपति होंगे। परंतु अभी तुम पश्चिम दिशा की ओर समुद्रतट को लक्ष्य में रखकर जाओ। वहाँ जाते ही तुम्हारे शत्रुओं का क्षय प्रारंभ हो जाएगा। मार्ग में चलते चलते यह सत्यभामा जिस स्थान पर दो पुत्रों को जन्म दे, उस स्थान पर एक नगरी बसाकर तुम निशंक रूप से रहना। क्रोष्टुकि ऐसे वचनों से राजा समुद्रविजय ने यह उद्घोषणा कराकर अपने सर्व स्वजनों को प्रयाण से समाचार दिये। एवं ग्यारह कुलकोटि यादवों को लेकर उन्होंने मथुरा नगरी छोड़ी। अनुक्रम से शौर्यपुर आये। वहाँ से भी सात कुल कोटि यादवों को लेकर आगे चले।
__ (गा. 3 58 से 364) उग्रसेन राजा भी समुद्रविजय का अनुसरण करके साथ चले। क्रमशः सभी विंध्यगिरी के मध्य में होकर सुखपूर्वक आगे चलने लगे।
(गा. 365)
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)