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अकेले ने ही सब राजाओं को जीत लिया। तब वे सभी राजा भाग गये। उनमें से कितना ही किसी गिरी में घुस गये, कितने ही अरण्य में जाकर छिप गये और कितने ही जलाशय में घुस गये। उनमें से हम दो तापस होकर निकल पड़े। हमने वृथा भुजधारी नपुसंकों को धिक्कार है। उनका इस प्रकार वृत्तान्त सुनकर वसुदेव ने उनको जैन धर्म का बोध दिया।
__ (गा. 491 से 496) अतः उन्होंने जैन दीक्षा ली। तब वसुदेव श्रीवस्ती नगरी में गये। वहाँ उद्यान में तीन द्वारवाला एक देव गृह उनको दिखाई दिया। उसके मुखद्वार के बत्तीस अर्गला भूगल थी। इसलिए उस मार्ग से प्रवेश करना मुश्किल था। अतः पास के द्वार से उन्होंने अंदर प्रवेश किया। वहाँ उन्होंने एक मुनि की, एक गृहस्थ की और एक तीन पैर वाले पाड़े की प्रतिमा देखी। तब यह क्या है ऐसा उन्होंने एक ब्राह्मण को पूछा, तब वह बोला यहाँ जितशत्रु नामका राजा था उनके मृगध्वज नाम का एक पुत्र था। उस नगर में कामदेव नाम का एक श्रेष्ठी रहता था। एक बार सेठ नगर के बाहर अपने गोष्ठ पशुशाला में गया। वहाँ उसके दंडक नामक ग्वाले ने सेठ जी को कहा कि सेठ जी! आपकी इस महिषी के पूर्व में मैने पांच पाड़े मार डाले हैं। यह छठा पाड़ा बहुत मुद्रिक आकृतिवाला आया है। जब से यह जन्मा है तब से भय से कांप रहा है तथा नेत्र को चपल करता हुआ वह मेरे चरणों में झुकता रहता है। अतः दया के कारण मैंने उसे मारा नहीं। आप भी इस पाडे को अभय दो। यह पाड़ा कोई जातिस्मरण वाला है, इस प्रकार ग्वाले ने कहा। तब वह सेठ द्रवित होकर उस पाड़े को श्रावस्तवी नगरी में ले गए। सेठ ने राजा के पास उसके अभय की मांग की। तब राजा ने भी उसे अभय देकर कहा कि ऐ! पाडा संपूर्ण श्रावस्तवी नगरी में स्वेच्छा से घूमा करो। एक बार राजकुमार मृगध्वज ने उस पाड़े के एक पैर को काट डाला। यह जानकर राजा ने उस कुमार को नगर से बाहर निकाल दिया। कुमार ने वैराग्य वासित हो दीक्षा ले ली। वह पाड़ा पैर काटने के बाद अठारहवें दिन मर गया और कुमार को बीसवें दिन केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। देव असुर राजा और अमात्य उनको वंदना करने आये। देशना के अंत में जितशत्रु राजा ने पूछा कि उस पाड़े के साथ आपका क्या वैर था? मृगध्वज केवली बोलते हैं।
(गा. 497 से 507)
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)