________________
से सर्वकलाएं ग्रहण की। उनकी निर्मल बुद्धि द्वारा दर्पण की जैसे उनमें सर्व आगम शास्त्र संक्रांत हो गए।
(गा. 24 से 27 )
एक बार वसुदेव और कंसादि के परिवार के साथ समुद्रविजय राजा बैठे थे। इतने में स्वच्छंदी नारद मुनि वहाँ आये । समुद्रविजय कंस और अन्य सभी राजाओं ने खडे होकर उदय होते सूर्य की भांति उनकी पूजा की । उनकी पूजा से प्रसन्न हुए नारद क्षणभर बैठकर पुनः वहाँ से अन्यत्र जाने को आकाश में उड़ गये क्योंकि वे मुनि सदा स्वेच्छाचारी हैं। उनके जाने के बाद कंस ने पूछा कि ये कौन थे ? तब समुद्रविजय बोले कि - पहले इस नगरी के बाहर यज्ञयशा नाम का एक तापस रहता था । उसके यज्ञदत्ता नाम की स्त्री थी । सुमित्र नामका एक पुत्र था। उस सुमित्र के सोमयक्ष नामकी पत्नि थी । अन्यदा कोई जंभृक देवता आयुष्य का क्षय होने पर वहाँ से च्यवकर सोमयशा की कुक्षि में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। वह यह नारद हुआ है । वे तापस एक दिन उपवास करके दूसरे दिन वन में जाकर उंछवृत्ति के द्वारा आजीविका करते हैं। इसलिए वे एक बार इस नारद को अशोक वृक्ष के नीचे रखकर उंछवृति के लिए गये थे । उस समय यह असमान कांति वाला बालक जृंभक देवताओं को देखने में आया । अवधिज्ञान द्वारा नारद को अपना पूर्वभव का मित्र जानकर उन्होंने उस पर रही हुई अशोक वृक्ष की छाया को स्तंभित कर दिया ।
(गा. 28 से 35 )
तब वे देवगण अपने कार्य के लिए जाकर अर्थ सिद्ध करके वापिस लौटे। उस वक्त स्नेह समर युक्त हो ये नारद को यहाँ से उठाकर वैताढ्य गिरी पर ले गये। उन देवताओं ने छाया को स्तंभित किया तब से ही यह अशोकवृक्ष पृथ्वी में छायावृक्ष नाम से विख्यात हो गया। जृंभक देवताओं ने वैताढ्यगिरी की गुफा में उसे रखकर प्रतिपालन किया। आठ वर्ष के होने पर उसको उन देवों ने प्रज्ञप्ति आदि सर्व विद्याएँ सीखी। उन विद्याओं के प्रभाव से वे आकाशगामी भी हुए हैं। ये नारद मुनि इस अवसर्पिणी में नवें हुए हैं और ये चरमशरीरी अंतिम शरीरी तदभव मोक्षगामी हैं। इस प्रकार त्रिकालज्ञानी सुप्रतिष्ठ नाम के इस मुनि की उत्पति मुझे पूर्व में कही थी। ये कलह प्रिय है। अवज्ञा करने से उनको क्रोध चढता है। वे एक स्थान पर रहते नहीं है, और सर्वत्र पूजे जाते हैं।
(गा. 36 से 42 )
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व )
151