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उसे तो वह क्रूर बुद्धिवाला कंस पहचान जाने से उसको शक हो जाएगा। इसलिए बलराम को ही वहाँ भेजना योग्य है, क्योंकि अभी तक कंस उसे पहचानता नहीं है। ऐसा निश्चय करके कृष्ण की कुशलता के लिए रोहिणी सहित राम को शौर्यपुर से बुलवाने के लिए वसुदेव ने एक व्यक्ति को समझाकर भेजा। उनके आने के बाद बलराम को अपने पास बुलाकर सर्व हकीकत यथार्थ रूप से समझाकर शिक्षा (सीख) देकर नंद और यशोदा को पुत्र रूप से अर्पण किया।
(गा. 146 से 151) बलराम के गोकुल आने के बाद दस धनुष ऊँची शरीर वाले और सुंदर आकृतिवाले वे दोनों दूसरे सर्व काम छोड़कर निर्निमेष नेत्रों द्वारा ग्वाले लोगों द्वारा देखे जाते हुए क्रीड़ा करने लगे। बलराम से कृष्ण धनुर्वेद साथ ही अन्य कलाओं को सीखने लगे और गोपों से सेवा कराते हुए सुख से रहने लगे। किसी समय वे दोनों मित्र होते तो किसी समय शिष्य और आचार्य होते थे। इस प्रकार क्षणमात्र भी अवियोगी रूप से रहने पर भी वे विविध प्रकार की चेष्टाएँ करने लगे। मार्ग में चलते हुए केशव मदोन्मत बैलों को पूँछ से पकड़कर खड़े रखते थे, उस समय राम भाई के बल को जानने पर भी उदासी भाव से देखते रहते। जैसे जैसे कृष्ण बडे होते गए वैसे-वैसे गोंपागनाओं के चित्त में उनको देखने मात्र से काम विकार उत्पन्न होने लगा कृष्ण को बीच में बैठाकर वे उनके चारों ओर फुदडी खाकर रास गाने लगी।
(गा. 152 से 157) कमल पर जैसे भंवरियां मंडराती हैं वैसे निर्भय चित्त से उनके चारों ओर प्रदक्षिणा लगाने लगी। उनके सामने देखती रहती गोपांगनाएँ जैसे अपने नेत्रों को बंद ही नहीं करती थी वैसे कृष्ण –कृष्ण बोलती हुई अपने ओष्टपुट को भी बंद ही नहीं करती थी। कृष्ण पर मुग्ध गोपांगनाएँ दूध दुहते समय दूध की धारा को पृथ्वी पर गिरती हुई भी नहीं देख पाती थी। कृष्ण जब पराङ्मुख होकर जाते हैं तब अपने सामने दिखाने के लिए बिना कारण ही वे त्रास पाई हो वैसे पुकार करती थी, क्योंकि वे त्रास पाए हुए का रक्षण करने वाले थे। अनेक बार सिंदुवारदि पुष्पों की मालाएँ गूंथ-गूंथ कर गोपियाँ स्वंय ही स्वंयवर माला की तरह उन मालाओं को कृष्ण के हृदय पर पहनाती थी। फिर कभी जानबूझ कर गोपियाँ गीत नृत्यादिक में त्रुटि करती कि जिससे शिक्षा के बहाने कृष्ण आलाप
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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