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करके स्वंय ही बतावें। मुग्ध गोपियां आसक्त विकार का गोपन नहीं कर सकने वाली गोपिंया किसी भी बहाने से कृष्ण को बुलाती थी और उनका स्पर्श करती थी। मोरपंख के आभरण वाले कृष्ण गोपियों के गान से अविच्छिन्न रूप से पूरते कर्ण वाले होने पर भी गोपाल गुजरी को बोलते थे। जब कोई भी गोपी याचना करती तब कृष्ण अगाध जल में रहे हुए कमलों को भी हंस की तरह शीघ्र ही लीलामात्र में तैरकर ला देते।
(गा. 158 से 165) बलराम को गोपियाँ उपालंभ देती कि आपके छोटे भाई देखने पर तो हमारे चित्त को हर लेते हैं, और न दिखने पर हमारे जीवन का हरण करते हैं। गिरिश्रृंग पर बैठकर वेणु को मधुर स्वर में बजाते और नृत्य करते कृष्ण बलराम को बारबार हंसाते थे। जब गोपियाँ गाती थी ओर कृष्ण नाचते थे तब बलराम रंगाचार्य की तरह उद्भट रूप से हस्तताल देते थे। इस प्रकार वहाँ क्रीड़ा करते हुए राम कृष्ण के सुषमा आरे के काल की तरह अत्यंत सुख में ग्यारह वर्ष व्यतीत हो गए।
(गा. 166 से 169) इधर शौर्यपुर में समुद्रविजय जी की प्रिया शिवादेवी ने एक बार कुछ शेष रात्रि रही तब हाथी, वृषभ, सिंह, लक्ष्मीदेवी, पुष्पमाल, चंद्र, सूर्य, ध्वज, कुंभ, पद्मसरोवर समुद्र विमान, रत्नपुंज और अग्नि ये चौदह महास्वप्न देखे। उस समय कार्तिक कृष्णा द्वादशी को चित्रा नक्षत्र में चंद्र का योग आने पर अपराजित विमान से च्यव कर शंख राजा का जीव शिवा देवी की कुक्षि में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। उस समय नारकी के जीवों को भी सुख हुआ और तीन जगत में उद्योत हुआ। अरिहंत प्रभु के कल्याणक के समय अवश्य ही इस प्रकार होता है। पश्चात शिवादेवी ने जागने पर समुद्रविजय राजा को स्वप्न की सर्व बात कह सुनाई। समुद्रविजय जी ने स्वप्नार्थ पूछने के लिए कोष्टुकि को बुलाया तब वह तुंरत आया। इतने में एक चारण श्रमण स्वयंमेव वहाँ पधारे। राजा ने खड़े होकर उनकी वंदना की और एक उत्तम आसन पर बैठाया। तब उन कोष्टुकि को और मुनि को राजा ने स्वप्न का फल पूछा। उन्होंने कहा कि तुम्हारे तीन जगत के पति ऐसे तीर्थंकर पुत्र होंगे। इस प्रकार कहकर वे मुनि चले गये। राजा और रानी उनकी वाणी से मानो अमृत से नहा लिये हों, ऐसे अत्यंत हर्षित हुए। उस दिन से
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)