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पंचम सर्ग
हस्तिनापुर में कोई एक श्रेष्ठी रहता था उसके ललित नाम का पुत्र था वह अपनी माँ का बहुत लाड़ला था। एक बार उसकी माता को अत्यधिक संतापदायक गर्भ रहा। उसने विविध उपायों से उस गर्भ को गिराना चाहा, तो भी वह गर्भ गिरा नहीं। पूर्ण समय पर सेठानी के पुत्र हुआ। उसने उसे कहीं डाल देने के लिए दासी को दिया। वह सेठ को दिख जाने पर उन्होंने दासी से पूछा कि यह क्या करती हो? दासी बोली- यह पुत्र सेठानी को अनिष्ट दायक हैं, अतः वे इसका त्याग करवा रहीं है। यह जानकर सेठ ने दासी के पास से उस पुत्र को ले लिया
और गुप्त रीति से उसका पालन पोषण कराने लगा। पिता ने उसका गंगदत्त नाम रखा। माता से छुपाकर ललित के साथ खिला भी था। एक बार बसंतोत्सव आया। तब ललित ने पिता से कहा कि आज गंगदत्त को साथ में जिमाओं तो बहुत अच्छा हो। श्रेष्ठी बोले- पुत्र तेरी माता यह देखेगी तो ठीक नहीं होगा।
(गा. 1 से 7) ललित ने कहा'- हे तात! मेरी माता देखे नहीं, वैसा मैं प्रयत्न करूँगा। तब सेठ ने वैसा करने की आज्ञा दी। तब गंगदत पर्दे में रहकर खाने बैठा। सेठ और ललित उसके आडे बैठ गये। वे खाते खाते गुप्त रीति से गंगदत्त को भोजन देने लगे। इतने में अचानक उत्कट हुए पवन ने पर्दे को हटा दिया, तो गंगदत्त सेठानी को दिखाई दे गया। उसने उसके बाल खींचकर घसीटा। खूब पीटकर उसे घर की नाली में डाल दिया। यह देखकर महामति सेठ और ललित उद्वेग को प्राप्त हुए और सेठानी से छुपाकर पुनः वहाँ से ले जाकर नहला कर उसको अनेक प्रकार से बोध दिया।
(गा. 8 से 11)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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