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उस समय कुछ साधु भिक्षा के लिए घूमते-घूमते वहाँ आए । उनको पिता और पुत्र ने सेठानी से उस पुत्र पर कुपित होने का कारण पूछा। तब वे साधु बोले - एक गाँव में दो भाई रहते थे। एक बार काष्ट लेने के लिए वे गाँव से बाहर गये और कष्ट की गाडी भरकर वापिस लौटे। उस समय बड़ा भाई आगे चल रहा था। उसने मार्ग में गाड़ी के चीले पर जाती हुई एक सर्पिणी देखी। इससे छोटा भाई जो गाड़ी चला रहा था, उसने कहा कि अरे भाई ! इस चीले में सर्पिणी पड़ी है, अतः बचाकर गाड़ी चलाना । यह सुनकर उस सर्पिणी को विश्वास हो गया। इतने में वो छोटा भाई भी गाड़ी के साथ वहाँ आ गया । उसने इस सर्पिणी को देखकर कहा कि इस सर्पिणी के बड़े भाई ने बचाया है परंतु मैं इसके ऊपर से ही गाड़ी चलाऊँगा, कारण कि उसकी अस्थि का भंग सुनकर मुझे बहुत हर्ष होगा । तब उस क्रूर छोटे भाई ने वैसा ही किया । यह सुनकर वह सर्पिणी यह मेरा बैरी है ऐसा चिंतन करती हुई मर गई । हे श्रेष्ठी ! वह सर्पिणी मरकर तेरी स्त्री हुई है और उन दोनों में ज्येष्ठ बंधु था, वह यह ललित हुआ है। पूर्व जन्म के कर्म से वह माता को अतिप्रिय है और जो कनिष्ठ बंधु था, वह यह गंगदत हुआ है। वह पूर्व कर्म से अपनी माता को बहुत अनिष्ट लगता है, क्योंकि पूर्व कर्म अन्यथा होते नहीं है । (गा. 12 से 20 )
मुनि के ऐसे वचन सुनकर सेठ और ललित ने संसार से विरक्त होकर तत्काल दीक्षा ग्रहण की और व्रत पालकर काल करके वे दोनों महाशुक्र देवलोक में देवता हुए। पश्चात् गंगदत्त ने भी चरित्र ले लिया। अंत समय में माता का अनिष्टपना याद करके विश्वल्लभ होने का नियाणा करके मृत्युपरांत महाशुक्र देवलोक में गये ।
(गा. 21 से 23 )
ललित का जीव महाशुक्र देवलोक से च्यवकर वसुदेव की स्त्री रोहिणी के उदर से उत्पन्न हुआ। उस समय अवशेष रात्रि में उसने बलभद्र के जन्म को सूचित करने वाले हाथी, समुद्र, सिंह और चंद्र इन चार स्वप्नों को मुख में प्रवेश करते देखा। पूर्ण समय पर रोहिणी ने रोहिणी पति चंद्र जैसे पुत्र को जन्म दिया। मगधादिक देश के राजाओं समुद्रविजय आदि ने उसका उत्सव किया । वसुदेव ने राम जैसा उत्तम नाम रखा। जो बलभद्र के नाम से प्रख्यात हुआ। सब के मन को माता राम अनुक्रम से बड़े हुए। उसने गुरूजन के पास
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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