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एक बार कंस ने स्नेह से वसुदेव को मथुरा आने के लिए निमत्रण दिया, तब दशार्दपति समुद्रविजय की आज्ञा लेकर वे मथुरा में गये। एक बार जीवयशा सहित बैठे कंस ने वसुदेव को कहा कि मृतिकावती नाम की एक बडी नगरी है उसके देवक नाम का राजा है वे मेरे काका होते हैं। उनके देवकन्या जैसी देवकी नाम की पुत्री है। उससे तुम वहाँ जाकर विवाह करो। मैं तुम्हारा सेवक हूँ, इसलिए मेरी इस प्रार्थना का तुम खंडन मत करना। इस प्रकार दाक्षिण्य निधि दसवें दशार्द वसुदेव ने कहा। उन्होंने इसे स्वीकार किया और कंस के साथ वहाँ चल दिये।
(गा. 43 से 47) ___ मृतिकावती के जाते समय मार्ग में नारद मिले, अतः वसुदेव और कंस ने विधि से उनकी पूजा की। नारद ने प्रसन्न होकर पूछा तुम कहाँ जा रहे हो? वसुदेव बोले ये मेरे सुहद कंस उनके काका देवक राजा की कन्या देवकी से विवाह करने जा रहा हूँ। नारद बोले- यह कार्य कंस ने अच्छा किया, क्योंकि विधाता निर्माण करता है। परंतु योग्य के साथ योग्य को जोड़ने में वह अपंडित है। वह तो मनुष्य को ही जोड़ता है जैसे पुरूषों में तुम रूप से अप्रतिम रूपवान हो, वैसे स्त्रियों में देवकी भी अप्रतिम रूपवती है। तुमने बहुत सी खेचर कन्याओं से विवाह किया है परंतु देवकी को देखोगे तो फिर ये सभी असार लगेंगी। हे वसुदेव! इस योग्य संयोग में तुमको कहीं से भी विघ्न नहीं होगा मैं भी जाकर देवकी को तुम्हारे गुण का वर्णन कहता हूँ। इस प्रकार कहकर नारद शीघ्र ही उड़कर देवकी के घर गए। देवकी ने उनकी पूजा की तब नारद ने आशीष देकर कहा कि तुम्हारे पति वसुदेव होंगे। देवकी ने पूछा ये वसुदेव कौन है? नारद बोले- वह युवा ऐसे दसवें दशार्ह है और विद्याधरों की कन्याओं को अतिप्रिय है। अधिक क्या कहूँ? देवताओं का रूप भी जिनके तुल्य नहीं है, ऐसे वे वसुदेव हैं। इस प्रकार कहकर नारदमुनि अन्तर्ध्यान हो गए। नारद की इस वाणी से वसुदेव ने देवकी के हृदय में प्रवेश किया।
__ (गा. 48 से 56) वसुदेव और कंस क्रमशः मृतिकावती नगरी में आ पहुँचे। विवेकी देवक राजा ने वसुदेव की और कंस की पूजा की। तब अमूल्य आसन पर बिठाकर उनको आगमन का कारण पूछा। कंस ने कहा, काका? आपकी दुहिता देवकी इस वसुदेव को दिलाने आया हूँ। मेरा यहाँ आने का प्रयोजन यही है। देवक ने
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)