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आया। उसने अजंलि जोड़कर वैदर्भी से कहा मैं वह विमलमति नामका तापस पति हूं कि जिसे आपने पूर्व में प्रतिबोध दिया था उसे याद करो। वहाँ से मृत्यु होने पर मैं सौधर्म देवलोक में श्री केसर नाम के विमान में श्रीकेसर नाम का देव हुआ हूँ। मेरे जैसे मिथ्यादृष्टि को तुमने अर्हदधर्म में स्थापित किया। उस धर्म के प्रभाव से तुम्हारी कृपा से अभी मैं देव बना हूँ। ऐसा कह सात कोटि सुवर्ण की वृष्टि करके कृतज्ञता प्रकाशित करके वह देव किसी स्थान में अंतर्धान हो गया। तब बसंतश्री शेखर दधिपर्ण, ऋतुपर्ण, भीम और महाबलवान राजाओं ने मिलकर नलराजा का राज्याभिषेक किया और उनकी आज्ञा से पृथ्वी के राजाओं ने सैन्य आदि को संलग्न कर लिया।
इस प्रकार अपने अपने सैन्य को वहाँ एकत्रित किया। पश्चात शुभ दिन में अतुल पराक्रमी नलराजा ने अपनी राज्यलक्ष्मी पुनः लेने की इच्छा से उन राजाओं के साथ अयोध्या की ओर प्रयाण किया। कुछ एक दिनों में सैन्य की रज से सूर्य को भी ढंक देते नलराजा अयोध्या पहुंचे एवं रतिवल्लभ नामक उद्यान में उन्होंने पडाव किया। नल को इस प्रकार उत्तम वैभव संयुक्त आया हुआ जानकर भय से कंठ में प्राण हो गया हो वैसे कुबेर अत्यंत आकुल व्याकुल हो गया। नल ने दूत भेजकर उसको कहलाया कि हम पुनः द्यूत रमे कि और उसमें ऐसा भी करें कि जिसमें मेरी सर्वलक्ष्मी तेरी हो जाय और तेरी सर्वलक्ष्मी मेरी हो जाय। यह सुनकर कुबेर रण के भय से मुक्त होने से खुश हुआ और विजय की इच्छा से उसने पुनः द्यूत खेलना प्रारंभ किया। उसमें अनुज बंधु से विशेष भाग्यवान ऐसे नल ने कुबेर की सर्व पृथ्वी को जीत लिया क्योंकि सदभाग्य का योग होता है तब विजय तो मनुष्य के कर कमलों में हंसरूप हो जाती है। नल ने कुबेर का सर्व राज्य जीत लिया। इस पर भी तथा कुबेर के अतिक्रूर होने पर भी यह मेरा अनुज बंधु है ऐसा सोचकर नल ने उस पर क्रोध नहीं किया। बल्कि क्रोधरहित नल ने अपने राज्य से अलंकृत होकर कुबेर को पूर्व की भांति युवराज पद दिया। नल ने अपना राज्य हस्तगत करके दवदंती के साथ कोशलानगरी के सर्व चैत्यों की उत्कंठापूर्वक वंदना की। भरतार्ध के निवासी राजा भक्ति से राज्याभिषेक की मांगलिक भेंट लेकर के आये। तत्पश्चात सर्व राजा जिनके अखंड शासन को पालते हैं ऐसे नल ने बहुत हजार वर्ष तक कोशला का राज्य किया।
(गा. 1051 से 1060)
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)