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स्वंयवर के दिन आपके पास आयेंगा। इस प्रकार कथन करके वह खेचर कनकवती को आशीष देकर विदा हुआ। तब उसने विचार किया कि सद्भाग्य से इस प्रकार के देव संबंधी वचन मेरे श्रवणगत हुए हैं। कनकवती चित्रस्थ पति के दर्शन से अतृप्त होकर बारंबार नेत्र की तरह उस चित्रपट को मीलनोन्मीलन करने लगी। कदली की तरह विरहताप से पीडित हुई वह राजबाला उस चित्रपट को क्षण में मस्तक पर, क्षण में कंठ पर क्षण में हृदय पर धारण करने लगी।
(गा. 55 से 63) चंद्रातप खेचर जो कि कनकवती और वसुदेव का संगम कराने में कौतुकी था, वह विद्याधरों से सुशोभित ऐसे विद्याधरनगर में गया। वहाँ महान शक्ति से पवन की भांति अस्खलित गति से उसी रात्रि को वह वसुदेव के वासभवन में घुसा। वहाँ हंस के रोम की गादी वाली एवं प्रक्षालित शुद्ध कालीन वाली शय्या में स्त्री के साथ शयन करते हुए वसुदेव उसे दिखाई दिए। विद्याधर की भुजलता का उपानह बनाकर सुखपूर्वक सोए हुए वसुदेव कुमार के पैर दबाकर सेवा करने लगा। वसुदेव रतिक्रीडा के श्रम से उत्पन्न श्रम से निद्रा सुख से व्याप्त थे, तथापि क्षणभर में जागृत हो गए क्योंकि उत्तम पुरुष सरलता से जागृत हो जाते हैं। आधी रात को अचानक आए उस खेचर को देखकर वसुदेव भयभीत सा क्रोधित न होते हुए बल्कि सोचने लगे कि यह कोई पुरूष जो कि मेरी सेवा कर रहा है, यह विरोधी ज्ञात नहीं होता, परंतु वह मेरा हितचिंतक अथवा कार्य चिंतक ही होगा। इस पदचंपी करते हुए पुरूष को मैं यदि कोमल वाणी से भी बुलाऊँगा तो भी रति क्रीडा से श्रांत होकर सोई हुई यह प्रिया जाग उठेगी। परंतु इस सेवा परायण पुरूष की उपेक्षा करना भी योग्य नहीं है। यदि मैं उपेक्षा भी करूँ तो भी यह पुरूष जब तक यहाँ रहेगा तब तक मुझे नींद तो आएगी ही नहीं। अतः प्रयत्न पूर्वक प्रिया को जगाए बिना शय्या से उठकर जरा दूर जाकर इस मनुष्य के साथ वार्तालाप करूँ।
(गा. 64 से 73) __ ऐसा विचार करके पलंग को हिलाए बिना शरीर की लघुता बनाते हुए शय्या से उठे और दूसरी ओर जाकर बैठे। चंद्राताप विद्याधर जो कि सर्वांग रत्नमय आभूषणों से विभूषित था, वह इन दसवें दशार्ह वसुदेव को भक्ति से प्रणाम करके एक साधारण मुसाफिर की भाँति खड़ा हो गया। वसुदेव ने उसे
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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