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इस प्रकार विचार करता हुआ ऋतुपर्ण राजा परिवार सहित वहाँ आया विस्मय से नेत्र विकसित करके दाँत की कांति से अधरो को उज्जवल करता हुआ, वह नेत्र रूप कुमुद में कौमुदी रूपी दवदंती को देखकर उसके प्रति इस प्रकार बोला- हे यशस्विनी! सर्वत्र मत्स्य न्याय का निषेध करने के लिए राजधर्म स्थापित किया हुआ है, जिससे दुष्ट जनों का निग्रह और शिष्ट जनों का पालन होता है। राजा पृथ्वी का कर, लेकर उससे चोर आदि के उपद्रव से रक्षा करता है अन्यथा चोर आदि दुष्ट लोगों का किया हुआ पाप उसे लगता है। इससे हे वत्से! यदि मैं इस रत्न के चोर का निग्रह नहीं करूँ तो फिर लोक निर्भय होकर परधन हरण करने को तत्पर हो जावे। वैदर्भी बोली- हे तात! मेरी दृष्टि से देखने पर भी यदि देहधारी का विनाश हो फिर मेरा श्राविका की कृपालुता किस काम की? यह चोर मेरी शरण में आया है, अतः हे तात! इसका अपराध क्षमा करो। इसकी पीड़ा का दुष्ट रोग की तरह मुझ में संक्रमण हो गया है। इस प्रकार इस महासती
और धर्मपुत्री के अतिआग्रह से ऋतुपर्ण राजा ने चोर को छोड़ दिया। छूट जाने पर चोर ने पृथ्वी की रज से ललाट पद तिलक करके दवदंती को कहा कि आप मेरी माता हो तत्पश्चात प्राणदान का उपकार रातदिन भी न भूलता हुआ वह चोर प्रतिदिन वैदर्भी के पास आकर उनको प्रणाम करता था।
(गा. 788 से 791) एक बार वैदर्भी ने चोर को पूछा कि तू कौन है? और कहां से आया है? यह निःशंक होकर कहे तब चोर बोला- तापसपुर नामक नगर में विपुल संपति का बसंत नाम का सार्थवाह है, उसका मैं पिंगल नाम का दास हूँ। वासनों में आसक्त हो जाने पर उनसे पराभव होने पर मैंने उस बसंत सेठ के घर में सेंध मारकर उसका सारभूत खजाना लेकर रात को वहाँ से भाग गया। हाथ में वह द्रव्य लेकर प्राण की रक्षा करने के लिए मैं भाग रहा था कि इतने में रास्ते में लुटेरे मिले। उन्होंने मुझे लूट लिया। दुष्टजनों की कुशलता कितनी ही हो अंततः कहीं न कहीं तो होनी होती ही है तब यहाँ आकर इन ऋतुपर्ण राजा की सेवा में रहना। मनस्वी व्यक्ति दूसरे किसी की सेवा करते नहीं, यदि करे तो राजा की सेवा करते हैं। एक बार मैं राजमहल में घूम रहा था तो वहाँ पर मैंने नीच बुद्धि से चंद्रवती का रत्नकंड पड़ा हुआ देखा। परस्त्री को देखकर दुर्बुद्धि व्यभिचारी की तरह उस करंडक का हरण कर लेने का मेरा मन चलित हो गया।
(गा. 792 से 804)
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)