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__ इस नगर में गरूड़ जैसा पराक्रमी ऋतुपर्ण नाम का राजा था। उसके चंद्र जैसे उज्जवल यशवाली चंद्रयशा नाम की रानी थी। उस चन्द्रयशा की दासियां सिर पर जलकुंभ लेकर परस्पर मजाक मश्करी करती हुई वापिका पर पानी भरने आई। उन दासियों ने दुर्दशा को प्राप्त तुंरत देवी के जैसी दवदंती को देखा। पदिमनी कभी कीचड़ में मग्न भी हो तो भी वह पदिमनी ही है। वैदर्भी के रूप को देखकर विस्मित होकर उसकी प्रशंसा करती हुई वापिका में मंद मंद घुसी और फिर मंद मंद वापिस निकली। उन्होंने राजमहल में जाकर उस रमणी के रूप की वार्ता धन के भंडार जैसी अपनी स्वामिनी चंद्रयशा रानी को कही। रानी ने दासियों को कहा कि उसे यहाँ शीघ्र ही ले आओ, वह मेरी पुत्री चंद्रवती की बहन जैसी होगी। शीघ्र ही दासियाँ उस तालाब पर आयीं। वहाँ नगराभिमुख हुई लक्ष्मी की जैसी दवदंती वहाँ ही बैठी हुई दिखाई दी। उन्होंने कहा भद्रे! इस नगर के राजा ऋतुपर्ण की रानी चंद्रयशा तुमको आदर से बुला रही है, इसलिए वहाँ चलो
और दुख को तिलांजलि दो। यदि यहाँ इस तरह शून्य होकर बैठी रहोगी तो कोई दुरात्मा से छलपूर्वक अथवा व्यंतारादिक से अविष्ट होकर अनर्थ पाओगी।
(गा. 755 से 764) इस प्रकार चंद्रयशा के कहलाये हुए वचनों से जिसका मन आर्द्र हो गया ऐसी दवदंती पुत्रीत्व के स्नेह से क्रीत हुई सी वहाँ जाने को तत्पर हो गई। आपको हमारी स्वामिनी ने पुत्री स्वरूप मान्य किया, इससे आप भी हमारी स्वामिनी ही हो। ऐसा कह विनय दर्शाती व दासियां उसे राजमहल में ले गई। यह चंद्रयशा दवदंती की माता पुष्पदंती की सहोदरा बहन थी। जिससे वह उसकी मौसी होती थी। पंरतु वैदर्भी को ज्ञात नहीं था, इसलिए वह कैसे पहचाने ? परंतु दवदंती नाम की मेरी भाणजी है ऐसा चंद्रयशा जानती थी, परंतु उसे बाल्यवय में देखा होने से इस समय वह भी उसे पहचान न सकी। तो भी रानी ने दूर से ही उसे पुत्री प्रेम से अवलोका। कारण इष्ट अनिष्ट का निर्णय करने में अंतःकरण ही मुख्य प्रमाण है। तब चंद्रयशा ने मानो श्रम से हुई उसकी दुर्बलता को दूर करना चाहती हो वैसे आदर से आलिंगन किया। वैदर्भी ने नेत्रों में से अश्रु गिराते हुए रानी के चरणों में नमन किया उस समय उसके अश्रुजल से रानी के चरण धोती हुई मानो उसकी प्रीति को बदला चुकाने हेतु उसके चरण प्रक्षालती हो, वैसे वह दिखने लगी।
(गा. 765 से 773)
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)