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उससे पूछा कि हे भद्रे! तुम कौन हो? और यहाँ कहाँ से आई हो? तब वैदर्भी ने कहा हे महाभाग! मैं वणिक पुत्री हूँ। पति के साथ पिता के घर जा रही थी कि मार्ग में मेरे पति मुझे रात में सोया हुआ छोड़कर चले गये। तुम्हारे सेवक मुझे सहोदर बंधु के समान यहाँ तुम्हारे पास ले आए हैं। तुम मुझे किसी शहर में पहुंचा दो। सार्थवाह बोला हे वत्से! मैं अचलपुर नगर जाने वाला हूँ, तो तुम खुशी से हमारे साथ आओ। तुमको पुष्प के समान वहाँ ले जाउँगा। इस प्रकार कहकर वह स्नेही सार्थवाह अपनी पुत्री की तरह उतम वाहन में बैठाकर शीघ्र ही वहाँ चलने में प्रवृत हुए। आगे जाने पर उस सार्थवाह शिरोमणि ने जल के निझरणे वाले एक गिरिकुंज में सार्थ का निवास कराया। वहाँ वैदर्भी स्वस्थ होकर सुखपूर्वक सो रही थी।
(गा. 724 से 731) इतने में रात्रि में सार्थ के किसी व्यक्ति को नवकार मंत्र बोलता हुआ उसने सुना। इसलिए उसने सार्थवाह को कहा कि यह नवकार मंत्र बोलने वाला मेरा कोई स्वधर्मी बंधु है। उसे तुम्हारी आज्ञा से देखने में इच्छुक हूँ। पिता की तरह उसकी वांछा पूर्ण करने के लिए सार्थवाह उसे नवकार मंत्र बोलने वाले श्रावक के आश्रम में ले गए। वह बंधु जैसा श्रावक तंबू में रहकर चैत्यवंदन कर रहा था, वहाँ जाकर उसे शरीरधारी शम हो, वैसा वैदर्भी ने उसे देखा। उसने चैतन्यवंदन किया तब तक भीमसुता अश्रु भगे नेत्रों से उस महाश्रावक की अनुमोदन करती हुई वहाँ बैठी रही। वहाँ वह श्रावक जिसे वंदना कर रहा था, उस वस्त्र पर आलेखित और मेघ जैसे श्यामवर्णीय अर्हत बिंब को देखकर उसने भी दर्शन किये। चैत्यवंदन हो जाने के पश्चात नल पत्नि ने स्वागत मंगलादि करके उससे पूछा कि हे भ्रात! यह किन अर्हत का बिंब है।
_ (गा. 732 से 738) वह श्रावक बोला- हे धर्मशील बहन! भविष्य मे होने वाले उन्नीसवें तीर्थंकर का बिंब है जिस कारण से इन भावी तीर्थंकर की मैं पूजा करता हूँ ? हे कल्याणी! मेरे कल्याण श्री मल्लिनाथ स्वामी का कारण सुनो समुद्ररूपी कटि मेखला पृथ्वी के मुकुद रत्न जैसी काची द्वारिका नाम की नगरी है। वहाँ का निवासी मैं वणिक हूं। एक बार धर्मगुप्त नामक ज्ञान मुनि वहाँ पधारे। वे रतिवल्लभ नाम के उद्यान में समवसरे। वहाँ जाकर मैंने वंदना करके उनको पूछा कि हे स्वामिन्! मेरा मोक्ष किस
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)