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कुबड़ा हाथी के सामने दौड़ा। उस समय अरे कुबडा! मरने को मत जा, मरने जा नहीं, दूर हट जा। इस प्रकार बार बार लोग उसे कहने लगे। तो भी वह तो केसरीसिंह की तरह निःशंक उसके सामने गये। हाथी के पास आकर उसे छलने के लिए गेंद की तरह प्रसरने हटने कूदने पड़ने और लौटने लगा।
(गा. 813 से 923) ___ बार बार उसकी पूंछ पकडकर उस पराक्रमी नल ने सर्प को जैसे वादी से खेदता है वैसे ही उसे बहुत खेदित कर दिया। पश्चात श्रम को जीतने वाले नलराजा उस गजेंद्र को शमित हुआ देख आरोहक में अग्रसर हों, वैसे उस पर गरूड की भांति उड़ कर चढ़ बैठे। आगे के आसन पर बैठकर उसके स्कंध पर दो पैर रख कुंभस्थल पर मुष्टिओं के द्वारा ताड़न करके उसके बंधन को ग्रंथि कर दृढ कर ली। फिर कपोल पर ताड़न करने से मुख फाड़कर चीत्कार शब्द करते उस हाथी को उस कुबड़े नल ने अंकुश द्वारा नाचते नचाते आगे चलाया। उस वक्त लोगों ने उसकी जय घोषणा की और राजा ने स्वंय उसके गले में सुवर्ण की चैन पहनाई। बलवान नल ने उस हाथी को मोम का हो, ऐसा नरम कर दिया। उसे उसके बंधन स्थान में ले जाकर उसकी कक्षा नाड़ी द्वारा नीचे उतर गया। वहाँ से निर्मल यशवाला नल राजा के पास जाकर उसको प्रणिपात करके उनके पास बैठे।
__ (गा. 924 से 930) उस समय दधिपर्ण ने पूछा, हे गजशिक्षा चतुर! तू इसके अतिरिक्त और भी कोई कला जानता है? तुझ में अनेक कलाएँ संभावित हैं। नल ने कहा- हे राजन्! दूसरा तो मैं क्या कहूँ, परंतु सूर्यपाक रसवती भी मैं करना जानता हूँ वह देखने की आपकी इच्छा है ? सूर्यपाक रसोई के कुतुहूली राजा ने तुरंत राजमहल में जाकर उसे कुबड़ को तंदुल शाक और वेशवार आदि लाकर दे दिये। तब नल ने सूर्य की धूप में उन पात्रों को रखकर सारी विद्य का स्मरण करके तत्काल दिव्य रसोई तैयार कर दी। तब मानो कि कोई कल्पवृक्ष ने दी हो, ऐसी वह मनोहर रसोई राजा ने परिवार के साथ खाई। श्रम को दूर करने वाली और परम आनंद को देने वाली रस रसवती का स्वाद लेकर दधिपर्ण राजा ने पूछा कि इस प्रकार की रसवती तो मात्र नलराजा ही बना सकते हैं, दूसरा कोई जानता ही नहीं हैं, क्योंकि चिरकाल तक नलराजा की सेवा करते हुए मुझे इस रसवती का
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)