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नेत्राक्षु दूर नहीं होते। तब राजा ने हरिमित्र नाम के एक आज्ञाचतुर राजबटुक को 'नल राजा की खोज में भेजा। नल और दवदंती को सर्वत्र खोजता वह राजबटुक अचलपुर में आया। वहाँ उसके राजसभा में प्रवेश किया। राजा के समक्ष आने पर उसको चंद्रयशा ने पूछा कि पुष्पदंती और उसका परिवार कुशल तो है ना। हरिमित्र बोला- हे ईश्वरी! देवी पुष्पदंती और उनका परिवार तो कुशल हैं, परंतु नल और दवदंती की कुशलता के विषय में चिंता है? देवी ने पूछा- अरे! यह क्या बात कहते हो? तब बटुक ने नल और दवदंती की चूत से हुई संपूर्ण दुःभव हालत कह सुनाई। जिसे सुनकर चंद्रयशा रोने लगी। उसे देखकर पूरा राजलोक भी हर्ष वार्ता का अनध्यायी हो वैसे रूदन करने लगा। सब को दुखातुर देख उसके उदर में क्षुधा लगी होने से वह बटुक दानशाला में गया। कारण कि दानशाला भोजन दान करने में चितामणी स्वरूप है।
(गा. 819 से 829) वहाँ वह भोजन करने बैठा। उस समय दान शाला की अधिकारिकी के रूप में बैठी हुई अपने स्वामी की पुत्री दवदंती को उसने पहचान लिया। शीघ्र ही रोमांचित हो उसने दवदंती के चरणों में वंदना की। क्षुधा की कथा तो वह भूल गया, और हर्ष से प्रफुल्लित नेत्र से वह बोला हे देवी! ग्रीष्मऋतु में लता की भांति आपकी ऐसी अवस्था कैसे हो गई ? आज सद्भाग से आपको जीवित देखा इससे सब को भी शुभ हुआ। इस प्रकार दवदंती को कहकर वह बटुक ने शीघ्र ही देवी चंद्रयशा के पास जाकर बधाई दी कि आपकी दानशाला में ही दवदंती है। यह सुनकर चंद्रयशा शीघ्र ही दानशाला में आई और कमलिनी की हंसी हो वैसे मिली। उसने दवदंती को आलिंगन किया, बाद में बोली हे वत्से! मुझे धिक्कार है। क्योंकि अद्वितीय सामुद्रिक लक्षणों से स्पष्ट जानने पर भी मैं तुझे पहचान न सकी। हे अन्धे! तूने भी आत्मगोपन करके मुझे क्यों छला ? कभी दैवयोग में ऐसी दुर्दशा हो भी जाय तो भी अपने मातकुल में क्या लज्जा रखनी। हे वत्से! तूने नलराजा को छोड़ा था उन्होंने तुझे छोड़ दिया।
___ (गा. 830 से 835) परंतु अवश्य उन्होंने ही तुझे छोड़ दिया होगा। कारण कि तू तो महासती है, इससे तू उनको नहीं छोड़ सकती। दुर्दशा में आए पति को तू छोड़ दे तो जरूर सूर्य पश्चिम में उदित हो जाय। अरे नल! तुमने इस सती को कैसे छोड़ दिया।
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)