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यदि मेरे मन में मेरे पति नल के सिवा दूसरा कोई पुरूष न हो तो उस सतीत्व के प्रभाव से तू हताश हो जा । अष्टादश दोष रहित सर्वज्ञ भगवान ही यदि मेरे इष्टदेव हों तो तू हताश हो जा। अठारह प्रकार के ब्रहमचर्य में तत्पर विरत और दयालु साधु ही मेरे गुरू हों तो तू हताश हो जा और अरे राक्षसी । जन्म से लेकर मेरे हृदय में वज्रकेप की तरह आर्हत धर्म ही रहा हो तो तू हताश हो। इस प्रकार उसके वचन सुनते ही उस राक्षसी ने उसको भक्षण करने की इच्छा छोड दी । पतिव्रताएं भी महर्षि की भांति अमोघ वचन वाली होती है। यह कोई समान्य स्त्री नहीं है परंतु पूर्ण प्रभावशाली स्त्री है, ऐसा विचार करके उसको प्रणाम करके स्वप्न में आई हों, वैसे वह राक्षसी तत्काल अंतर्धान हो गई।
(गा. 709 से 714)
वहाँ से दमयंती आगे चली । वहाँ मिट्टी की तरंगवाली पर्वत में से निकली एक निर्जल नदी उसे दिखाई दी । शून्य उपवन की नीक जैसी निर्जल नदी के पास आकर तृषा से जिसकी तालु क्षुष्क हो गई ऐसी दवदंती ने इस प्रकार कहा कि यदि मेरा मन सम्यगदर्शन से अधिवासित हो तो इस नदी में गंगा की भाँति उत्कल्लोल जल हो जाय। ऐसा कहकर उसने पैर की एड़ी से भूतल पर प्रहार किया। तब तत्काल इंद्रजल की नदी की तरह वह नदी सजला हो गई। मानो क्षीरसागर की सिरा में से उत्पन्न हुई हो ऐसा स्वादिष्ट और क्षीर जैसा उज्जवल उसका स्वच्छ जल दवदंती ने हथिनी की तरह पिया । वहाँ से आगे जाने पर दवदंती श्रांत होकर एक वटवृक्ष के नीचे वटवासी यक्षिणी के सदृश बैठी। उस समय कुछ पथिक किसी सार्थ में से वहाँ आए। उन्होंने दवदंती को वहाँ रही हुई देखकर पूछा कि हे भद्रे ! तुम कौन हो ? हमको देवी जैसी लगती हो। वैदर्भी बोली- मैं मानव स्त्री हूँ, किसी सार्थ में से भ्रष्ट होने पर इस अरण्य में वसती हूँ। मुझे तापसपुर जाना है, अतः मुझे उसका मार्ग बताओ । वह बोली जिस दिशा में सूर्य अस्त हो, उस दिशा में आश्रय करो। हम अन्यत्र जाने में उत्सुक हैं इससे तुमको मार्ग बताने में समर्थ नहीं है।
(गा. 715 से 723)
हम जल शोधने निकले हैं। वह जल लेकर समीप में जहां हमारा सार्थ उतरा है, वहाँ जायेंगे । यदि तुम वहाँ आओ तो हम तुमको किसी बस्ती वाले नगर में ले जायेंगे। तब वह उनके सार्थ में चली गई । वहाँ धनदेव नामक दयालु सार्थवाह ने
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व )
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