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केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार कहकर उन सिंहकेसरी मुनि ने योग निरोध करके भवोपग्राही कर्म का हनन करके परम पद को प्राप्त किया। तब शुभाशय वाले देवताओं ने उनके शरीर को पुण्यक्षेत्र में ले जाकर उनका अग्निसंस्कार किया।
(गा. 691 से 694) यथार्थ नाम वाले विमलमति कुलपति ने उस समय यशोभद्रसूरी के चरणों में दीक्षा अंगीकार की। उस समय वैदर्भी ने भी सूरि जी को कहा- हे भगवन! मुझे भी मुक्ति की माता रूप दीक्षा दीजिए। यशोभद्रसूरि बोले- हे दवदंती! अभी तुम्हें तुम्हारे नल राजा के साथ भोग भोगने हैं अतः तुम व्रत लेने के योग्य नहीं हो। प्रातःकाल होने पर सूरि जी पर्वत से नीचे उतरे और अपने चरणों से तापसपुर को पवित्र किया। करूणानिधि और अर्हत धर्म के उपदेशक उन सूरि जी ने वहाँ चैत्य को नमस्कार करके, वहाँ नगर लोकों में समकित आरोपित किया। धर्मध्यान परायण वैदर्भी मलिन वस्त्र धारण करके उस गुहागृह में भिक्षुणी की तरह सात वर्ष तक रही। एक वक्त किसी पथिक ने आकर कहा कि हे दंवदति! अमुक प्रदेश में तुम्हारे पति को देखा है। उसके वचनामृत का पान करते दवदंती के अंग में रोमांच प्रकट हो गया। प्रेम का लक्षण ऐसा ही होता है।
(गा. 695 से 702) ऐसे वचनों से मुझे यह कौन तृप्त कर रहा है? ऐसा जानने को शब्दभेदी बाण की तरह वह उस पथिक के शब्द के अनुसार ही वह दौड़ गई। परंतु दवदंती को गुफा में से बाहर निकालने में पथिक उसे बाहर लाकर किसी स्थान पर अंतर्धान हो गया। उसने चारों तरफ देखा पर किसी स्थान पर मनुष्य दिखाई नहीं दिया, और अपनी गुफा का भी नहीं मिली, इससे वह उभयभ्रष्ट हो गई। अहो! देव दुर्बल का ही घातक है। बाद में वह महाअरण्य में पहुंच गई। क्षण में खडी होती है बैठती है लोटती है विलाप करती है अर्थात रूदन करती है। ऐसा बारबार करने लगी। अब मैं क्या करूँ ? कहाँ जाउँ ? ऐसा विचारती विचारवान दवदंती आदरपूर्वक उस गुफा में जाने के लिए वापिस लौटी। मार्ग में एक राक्षसी जैसे भेड़ को बाघिन देखती है, वैसे देखा। अपने मुखरूपी गुफा को प्रसार कर वह खाउँ, खाउँ ऐसे कहने लगी। उस समय वैदर्भी बोली- अरे राक्षसी!
(गा. 703 से 708)
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)