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विषम ऐसा वर्षा का समय बीत रहा है, पृथ्वी भी कीचड़ के कारण पीड़ाकारी हो गई है। ऐसे समय में प्रवास व मार्ग से अनजान आप यहाँ कहाँ आ पहुँचे? मुनि बोले भद्र! मै। पांडु देश से यहाँ आया हूं और गुरू महाराज के चरणों से पवित्र लंका नगरी में जाना है। मुझे वहाँ जाते हुए यहाँ अंतरायकारी वर्षाऋतु आ गई
और धारधार मेघ ने अखंड धारा से बरसना प्रारंभ किया। मेघ बरसता हो तब महर्षियों को गमन करना अयुक्त होता है अतः वृष्टि का अंत आवे तब तक का अभिग्रह लेकर कायोत्सर्ग करके मैं यहाँ रहा था। हे महात्मन्! आज सातवें दिन वृष्टि ने विराम लिया, अतः मेरा अभिग्रह पूर्ण होने पर अब मैं किसी भी निवास स्थान पर चला जाऊँगा। हर्षित होकर धन्य बोला- हे महर्षि। यह मेरा पाड़ा है इसके ऊपरशिबिका की तरह चढ कर बैठ जाइये कारण कि यह भूमि कीचड वाली है इस पर चलना कष्ट साध्य है यह ऐसी ही हो गई है। मुनि बोले- हे भद्र! महर्षिगण किसी भी जीव पर आरोहण नहीं करते हैं। दूसरे को पीड़ा हो, ऐसा कर्म का वे कभी भी आचरण नहीं करते है। मुनि तो पदचारी ही होते हैं।
(गा. 254 से 267) ऐसा कहकर वे मुनि धन्य के साथ नगर की ओर चल दिये। नगर में पहुँचने के बाद धन्य मुनि को नमन करके अंजलि बद्ध कर बोला महात्मन! जब तक भैंसों को दुहकर आँऊ तब तक आप मेरी यहाँ पर राह देखें। ऐसा कहकर अपने घर जाकर भैंसों को दुहकर एक दूध का घड़ा भरकर ले आया। अपनी आत्मा को अतिधन्य मानता हुआ उस धन्य ने उस दूध से अति हर्ष से उन मुनि को पुण्य के कारणभूत पारणा कराया। उन महर्षि ने नगर में रहकर वर्षाऋतु व्यतीत की। ईर्याशुद्धि द्वारा उचित ऐसे मार्ग पर चलते हुए वे मुनि अपने योग्य स्थान पर चले गये।
(गा. 268 से 272) धन्य ने पाषाण रेखा जैसा स्थिर समकित धारण करके अपनी स्त्री घुसरी के साथ चिरकाल तक श्रावक व्रत का पालन किया। कुछ समय पश्चात धन्य और उसे धूसरी चारित्र ग्रहण किया। सात वर्ष तक उसकी प्रतिपालना करने के पश्चात समाधि पूर्वक उनकी मृत्यु हुई। मुनि को दूध का दान करने से उपार्जित पुण्य के द्वारा वे दोनों किसी लेश्या विशेष से हिमवंत क्षेत्र में युगलिक रूप में उत्पन्न हुए। वहाँ से आर्त और रौद्र ध्यान बिना मृत्यु प्राप्त कर वे क्षीरडिंडीर और
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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