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बधिर करे ऐसे उसके हुँकार से क्षुद्र वन्यजीवों की भांति तत्काल ही सर्व चोर लोग भाग गये। यह देख सार्थजन कहने लगे कि अपने पुण्य से आकर्षित हो यह कोई देवी आई है, इसने चोर लोगों के भय से अपनी रक्षा की है।
(गा. 576 से 580) पश्चात संघमति ने उसके पास आकर माता की तरह भक्ति से उसे प्रणाम किया और पूछा कि आप कौन हो? और इस अरण्य में क्यों भ्रमण कर रही हो? तब दवदंती अश्रुयुक्त नेत्र से बांधक की तरह उस सार्थवाह को नलराजा की चूत से लेकर अपना सर्व वृत्तांत कहा। वह सुनकर सार्थवाह बोला- हे भद्रे! आप महाबाहु नलराजा की पत्नि हो, अतः आप हमारी हो और आपके दर्शन से मैं पुण्यशाली हुआ हूँ। आपने इन चोर लोगों से जो हमारी रक्षा की है, उस उपकार से हम सभी आपके ऋणी हो गए हैं, इसलिए आप आकर हमारे आवास को पवित्र करो ताकि हमसे जो कुछ भी आपकी भक्ति बने वह कर सकें। ऐसा कहकर सार्थ पति उसे अपने पटगृह में ले गया और वहाँ देवी की आराधना करे वैसे उसकी सेवा भक्ति करने लगा।
(गा. 581 से 585) इस समय वर्षा ऋतु रूप नाटक की नांदी सा गर्जना का विस्तार करता हुआ मेघ अखंडधारा से वृष्टि करने लगा। स्थान स्थान पर अविच्छिनरूप से बहते प्रवाहों से उद्यान जैसी सर्व भूमि दिखाई देने लगी। जल से परिपूर्ण ऐसे छोटे बड़े खड्ढों में हुए दादुरों के शब्दों से मानो उपांत भूमि द१रवाद्य का संगीत हो ऐसी दिखाई देने लगी। सारे अरण्य में वराहों की स्त्रियों के दोहद को पूर्ण करने वाला ऐसा कीचड़ हो गया कि मुसाफिरों के चरण में मोचक प्रक्रिया अर्थात पैरों में मानो कीचड़ के पगरखे पहने हो ऐसा दर्शाने लगा। इस प्रकार तीन रात तक अविच्छिन्न रूप से उग्रवृष्टि हुई। उतने समय दवदंती पितृगृह तुल्य वहाँ सुखपूर्वक रही। जब मेघ बरस कर थम गया तब महासती वैदर्भी सार्थ को छोडकर अकेली चल पडी। नलराजा का वियोग हुआ उसी दिन से वैदर्भी चतुर्थ भक्ति आदि तप में लीन होकर शनैः शनैः मार्ग निर्गमन करती थी।
(गा. 586 से 594) आगे जाने पर यमराज का जैसे पुत्र हो, वैसा भंयकर से भी भंयकर एक राक्षस उसे दिखाई आया। उसके केश पीले थे, जिससे वे दावानल से प्रदीप्त पर्वत
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)