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थे, परंतु अग्नि की तरह तेजस्विनी के पास जाने का साहस न कर सके । वह जल्दी जल्दी जा रही थी तब बिल के मुख में से बड़े सर्प निकलते, परंतु मानो मूर्तिमान् जांगुली विद्या हो वैसे उसके पास जा नहीं पाते थे । जो अन्य हाथी की शंका से अपनी छाया को दाँत से भेदते थे ऐसे उन्मत हाथी भी रानी को सिंहनी के समान समझ उससे दूर दूर खड़े रहते ।
(गा. 562 से 567)
इस प्रकार मार्ग में चलते वैदर्भी को दूसरे कोई भी उपद्रव नहीं हुए । पतिव्रता स्त्री का सर्वत्र कुशल होता है । इस राजरानी के केश भील की स्त्री की भाँति अत्यंत विंसस्थूलपूर्वक हो गये थे। मानो तुरंत ही स्नान किया हो वैसे उसका सर्व अंग प्रस्वेद जल से व्याप्त था। मार्ग में करीर और बोरडी आदि कंटकीय वृक्षों के साथ घर्षण होने से उनके शरीर से गोंद वाले सल्लकी वृक्ष की तरह चारों ओर रूधिर निकलता था। शरीर पर मार्ग की रज चिपकाने से जैसे दूसरी त्वचा रखती हो, ऐसी दिखती थी। तो भी दावानल से त्रास पाई हुई हथिनी की तरह त्वरित गति से चल रही थी । इसी प्रकार मार्ग में चलते हुए अनेक गाड़ियों से संकीर्ण ऐसा एक बड़ा सार्थ, मानो कोई राजा की छावनी हो, ऐसा पड़ाव करके रहा हुआ उसकी दृष्टि में आया। उसे देख वैदर्भी ने सोचा कि यह किसी सार्थ का पडाव दिखाई देता है, वास्तव में यह मेरा पुण्योदय ही दृष्टिगत होता है।
(गा. 568 से 575)
इस विचार से कुछ स्वस्थ हुई, इतने में तो देवसेना को असुरों के सदृश चोर लोगों ने आकर उस संघ को चारों तरफ से घेर लिया। मानो चारों तरफ सब ओर चोरमय दीवार हो गई हो। इस प्रकार चारों तरफ से आती हुई चोर की सेना को देखकर सर्व सार्थजन भयभीत हो गये। क्योंकि धनवानों को भयप्राप्ति सुलभ है। उसी समय अरे सार्थ निवासी जनो ! डरो नहीं, डरो नहीं। ऐसा बोलती हुई उनकी कुलदेवी की भाँति दवदंती उच्च स्वर में बोली । तब उसने चोरों से कहा, अरे दुराशयें! यहाँ से चले जाओ, मैं इस संघ की रक्षक हूँ, यदि तुम कुछ भी उपद्रव करोगे तो अनर्थ हो जाएगा। इस प्रकार कहती हुई दवदंती को मानो कि कोई वातूला हो या भूतपीडित हो ऐसा मानकर चोरों ने उसकी गणना नहीं की। तब उस कुंडिनपति के दुहिता ने सर्व सार्थजनों के हित के लिए चोरों के अंहकार का विदारण करने वाली भंयकर हुँकार शब्दोच्चारण किया । वन को भी जो
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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