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नहीं मिले, तब तक लाल वस्त्र, तांबूल आभूषण विलेपन और विकृति अर्थात् विगय दूध, दही, घी, तेल, मिठाई तली वस्तु ये छः विगय इनको विकृति विकार करने वाली कहा जाता है को भी मैं ग्रहण नहीं करूँगी । ऐसा अभिग्रह लेकर यह मी वर्षाऋतु निर्मन करने हेतु निर्भय होकर एक गिरि गुहा में निवास करने लगी। वहाँ उसने श्री शांति नाथ भगवान का मृतिकामय (मिट्टी से निर्मित) बिंब बनाकर अपने निर्मल हृदय के समान गुफा के एक कोने में स्थापित किया। वह वन में जाकर स्वंयमेव खिरे हुए पुष्पों को लाकर उन सोलहवें भगवान की त्रिकाल पूजा करने लगी और यह आर्हती आँवला चतुर्थादि तप के पश्चात बीजरहित प्रासुकफल द्वारा पारणा करके वहीं पर रहने लगी।
(गा. 608 से 612)
इधर उस सार्थवाह ने जब अपने साथ में नल प्रिया को देखा नहीं तब वह उसका कुशल होवे ऐसा चिंतन करता उसके पदचिह्नों पर चलता हुआ गुफा में आया। वहाँ उसने समाधि में अरिहंत प्रभु की प्रतिमा का पूजन करते हुए दवदंती को देखा। वैदर्भी को कुशल देखकर सार्थवाह हर्षित हुआ । विस्मय से नेत्र विकसित करके उसको नमन करके वह भूमि पर बैठा । दवदंती अर्हत् पूजा समाप्त करके स्वागत प्रश्न पूछकर अमृत जैसी मधुर वाणी द्वारा सार्थवाह के साथ बातें करने लगी। इस वार्तालाप को सुनकर वहाँ समीप में स्थित कुछ तापस मृगों की तरह उँचे कान करते हुए शीघ्र ही वहाँ आये । उस समय दुर्धर जलधारा से पर्वत पर टांकणा से ताड़न करता हुआ मेघ बरसने लगा। थाले जैसी मेघधारा से मार खाते वे तापस अब अपन कहाँ जायेंगे ? और इस जल संकट से कैसे मुक्त होंगे ? ऐसा बोलने लगे । तिर्यंच प्राणियों की भाँति कहाँ भाग जावें, ऐसी चिंता से आकुल व्याकुल उन तापसों को देखकर तुम डरो मत ऐसा उच्च स्वर में बोली। पश्चात एक मर्यादा कुंड करके यह धुंरधर सती इस प्रकार मनोहर वाणी बोली- यदि मैं वास्तव में सती होऊँ, सरल मन वाली होऊँ और आर्हती श्राविका होऊँ तो यह बरसात कुंड के बाहर अन्यत्र बरसे।
(गा. 613 से 621)
तत्काल उसके सतीत्व के प्रभाव से कुंड के ऊपर मानो छत्र धारण किया हो, उतनी जमीन पर जल पड़ना बंद हो गया। उस समय जल से धुला हुआ वह पर्वत का प्रदेश नदी में स्वप्न करने से निर्मल और श्याम शरीर वाले हाथी के
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व )
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