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यदि मैं इस बाला को अकेली छोड़ दूंगा तो जब यह मुग्धा जागृत होगी तब जरूर यह मेरी स्पर्धा से ही जीवनयुक्त हो जाएगी, इसलिए इस भक्त रमणी को छोड़कर अन्यत्र जाने में उत्साह आता नहीं है। अब तो मेरा मरण या जीवन इसके साथ ही हो अथवा इस नरक जैसे अरण्य में नारकी की तरह मैं अकेला ही अनेक दुखों का पात्र हो जाउँ, और मैंने जो इसके वस्त्र पर जो आज्ञा लिखी है, उसे जानकर यह मृगाक्षी अपने आप स्वजन के गृह में जाकर कुशल हो जाय। पुनः ऐसा विचार करके नल रात्रि वहाँ निर्गमन करके पत्नि के प्रबोध के समय त्वरित गति से चलकर अंतर्हित हो गया।
(गा. 532 से 536) इधर रात्रि के अवशेष भाग में विकसित कमल की सुगंध वाला प्रातःकाल का मंद मंद पवन चल रहा था, उस समय दवदंती को एक स्वप्न आया, जैसे फलित, प्रफुल्ल्ति , और घने पत्तों से युक्त आम्रवृक्ष पर चढकर भ्रमरों के शब्दों को सुनती वह फल खाने लगी। इतने में किसी वन हस्ति ने अकस्मात आकर उस वृक्ष का उन्मूलन कर दिया, जिससे पक्षी के अंडे की तरह वह उस वृक्ष से नीचे गिर पड़ी। ऐसा स्वप्न देखकर दवदंती एकदम जाग उठी, वहाँ उसने अपने पास नलराजा को देखा नहीं, तब यूथभ्रष्ट मृगी की तरह वह दसों दिशाओं में देखने लगी। उसने सोचा कि अहा! मुझ पर अनिवार्य दुख अकस्मात आ पड़ा क्योंकि मेरे प्राणप्रिय ने भी मुझे इस अरण्य में अशरण त्याग दिया। अथवा रात्रि व्यतीत होने से मेरे प्राणेष मुख धोने या मेरे लिए जल लेने किसी जलाशय पर गये होंगे अथवा उनके रूप से लुब्ध होकर कोई खेचरी उनको आग्रह करके क्रीड़ा करने ले गई होगी, पश्चात उसने किसी कला में उसे जीत लिया होगा और उसमें रोकने की होड़, की होगी वहाँ रूक गये होंगे। ये वे ही पर्वत, वे ही वृक्ष वही अरण्य और वही भूमि दिखाई देती है, मात्र एक कमल लोचन नलराजा को मैं नहीं देखती।
__ (गा. 537 से 545) इस प्रकार विविध प्रकार की चिंता करती हुई दवदंती ने सभी दिशाओं की ओर देखा परंतु जब अपने प्राण नाथ को कहीं नहीं देख पाई तब वह अपने स्वप्न का विचार करने लगी कि जरूर मैंने स्वप्न में जो आम्रवृक्ष देखा वह नल राजा पुष्पफल वह राज्य फल का स्वाद वह राज्यसुख और भँवरे वह मेरा परिवार है। जो वन के गजेंद्र न आकर आम्रवृक्ष को उखाड़ा वह दैव ने आकर
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)