________________
के मस्तक पर पटरानी के पटबंध के लिए होता था, उसी वस्त्र को फाड़-फाड़ कर अभी नलराजा उसके चरण रक्तबंद कर रहा था, अर्थात् उसके पैर में पट्टी बांध रहा था।
(गा. 496 से 504) इस प्रकार चलते चलते थक जाने से वृक्ष के तल पर बैठी हुई भीमसुता कोनल राजा अपने वस्त्र के किनारे से पंखा करके पवन करने लगे और पलाश के पत्तों का दोनों बनाकर उसमें जल लाकर तृषित हुई उस रमणी को पिंजरे में पड़ी सारिका की तरह जलपान कराने लगे। उस समय वैदर्भी ने नलराजा को पूछा कि हे नाथ! यह अटवी अभी कितनी शेष बाकी है? क्योंकि इस दुख से मेरा हृदय द्विधा होने के लिए कंपायमान हो रहा है। नल ने कहा प्रिये! यह अटवी सौ योजन की है और उसमें अभी अपन पांच योजन आये हैं, अतः धैर्य रखो। इस प्रकार बातें करते हुए अरण्य में आगे चल रहे थे। इतने में मानो संपति की अनित्यता को सूचित करता हो ऐसा सूर्य अस्त हो गया। उस समय बुद्धिमान नल अशोक वृक्ष के पल्लव एकत्रित करके उनके दीठे निकाल कर दवदंती के लिए उसकी शय्या बनाई। तब उसे कहा- प्रिये! शय्या पर शयन करके इस अलंकृत करो और निद्रा को अवकाश दो। क्योंकि निद्रा दुख का विस्मरण कराने वाली एक सखी है। वैदर्भी बोली-हे नाथ! यहाँ से पश्चिम दिशा की और नजदीक में ही गायों का रंभारण सुनाई दे रहा है, इससे नजदीक में कोई गाँव हो, ऐसा लगता है। अतः चलो जरा आगे चलकर उस गांव में अपन जावें और सुखपूर्वक सोकर रात निर्गमन करें। नल ने कहा- अरे भीरू! यह गांव नहीं है, परंतु तापसों का आश्रम है, और वे अशुभोदय के संयोग से सदा मिथ्यादृष्टि है। हे कृशोदरी! इन तापसों की संगति से कांजी द्वारा मनोरम दूध की तरह उतम समकित भी विनाश को प्राप्त होता है, अतः तू यहीं पर ही सूखपुर्वक सो जा। वहाँ जाने का मन मतकर। अंतःपुर के रक्षक की तरह मैं तेरा पहरा देऊँगा।
(गा. 505 से 514) तब नल ने पल्लवशय्या पर अपनी प्यारी को मोटे मोटे गद्दों का स्मरण कराते हुए अपना अर्ध वस्त्र बिछाया। अहंत देव को वंदना करके और पंच नमस्कार का स्मरण करके गंगा तट पर हंस की तरह वैदर्भी ने उस पल्लवशयया पर शयन किया। जब वैदर्भी के नेत्र निद्रा से मुद्रित हुए, उस समय नलराजा को
108
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)