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दुख सागर के महत आर्वत जैसी चिंता उत्पन्न हुई। वह विचारने लगा कि जो पुरूष ससुराल की शरण लेता है, वे अधम नर कहलाते हैं, तो दमयंती के पिता के घर यह नल किस लिए जाता है ? इससे अब हृदय को वज्र जैसा करके इस प्राण से भी अधिक इस प्रिया का यहाँ त्याग करके स्वेच्छा से रंक की तरह अकेला मैं अन्यत्र चला जाउँ। इस वैदर्भी को शील के प्रभाव से कुछ भी उपद्रव नहीं होगा। कारण कि सती स्त्रियों को शील उसके सर्व अंग की रक्षा करने वाला शाश्वत महामंत्र है। ऐसा विचार करके छुरी निकाल कर नल ने अपना अर्धवस्त्र काट डाला, और अपने रूधिर से दमयंती के वस्त्र पर इस प्रकार अक्षर लिखे- हे विवेकी वामा! हे स्वच्छ आशयवाली! बड़ के वृक्ष से अलंकृत जिस दिशा में जो मार्ग है, वह वैदर्भ देश में जाता है और उसकी वाम तरफ का मार्ग कोशल देश में जाता है, अतः इन दोनों में से किसी एक मार्ग पर चलकर पिता या श्वसुर के घर तू चली जाना। मैं तो इसमें से किसी भी स्थान पर रहने का उत्साह नहीं रखता। इस प्रकार के अक्षर लिखकर निःशब्द रूदन करता हुआ और चोर के जैसे धीरे धीरे डग भरता नल वहाँ से आगे चला। वह अदृश्य हुआ तब तक अपनी सोई हुई प्यारी को ग्रीवा टेढी कर करके उसे देखता देखता चलने लगा।
(गा. 515 से 525) उस वक्त उसने सोचा कि ऐसे वन में अनाथ बाला को अकेली सोती छोडकर मैं चला जा रहा हूँ, परंतु यदि कोई क्षुघातुर सिंह या व्याघ्र आकर उसका भक्षण कर जाएगा तो इसकी क्या गति होगी? इसलिए अभी तो इसे दृष्टि के विषय में रखकर मैं रात्रि पूर्ण होने तक इसकी रक्षा करूँ, प्रातःकाल में वह मेरे बताए हुए दोनों मार्गों में से एक मार्ग पर चली जाएगी। ऐसा विचार करके नल अर्थभ्रष्ट हुए पुरूष की भाँति उन्हीं पैरों से वापिस लौटा। वहाँ आकर अपनी स्त्री को पृथ्वी पर आलोटती देख कर पुनः विचार करने लगा। अहा! यह दवदंती एक वस्त्र पहन कर मार्ग में सोई है। जिस नलराजा का अंतःपुर सूर्य को भी देखता नहीं, उसकी यह कैसी दशा? अरे मेरे कर्म के दोष से यह कुलीन कांता ऐसी दशा को प्राप्त हुई है, परंतु अब मैं अभागा क्या करूँ? मेरे पास में होने पर भी यह सुलोचना उन्मत अथवा अनाथ की जैसे भूमि पर सोई है, तथापि यह नल यद्यपि जीवित है।
(गा. 526 से 531)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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