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दिखाई देती थी । कान में रहे हुए दो कुंडलों से दो चंद्रवाली मेरूगिरी की भूमि हो वैसी लगती थी। अलता से रक्त ऐसे उसके ओष्ठ, पके हुए बिंबफल वाली बिंबिका जैसी लग रही थी । हार से सुशोभित स्तनु प्रदेश झरनों वाली पर्वतभूमि के समान दिखती थी। उसके हाथ में कामदेव के हिंडोले जैसी पुष्पमाला रही हुई थी। उसके आने से मांगल्य दीपिका द्वारा गर्भगृह की जैसी स्वयंवर मंडप शोभायामान हुआ। चंद्र की लेखा शिशिरप्रभा द्वारा जिस प्रकार कुमुद जाति के कमलों को देखती है, वैसे उसको वरने को इच्छित सर्व युवाओं को मिष्ट दृष्टि से अवलोकन किया। पंरतु प्रथम चित्रपट में और पश्चात दूत के रूप में वसुदेव को देखा था, उनको इस समूह में देखा नहीं, तब सांयकाल के समय कमलिनी म्लान हो जाती है, वैसे ही उसे खेद से ग्लानि होने लगी ।
(गा. 195 से 202) सखियों के साथ में रही हुई और हाथ में स्वंयवर माला का भार वहन बरने वाली वह बाला पुतली की तरह अस्वस्थ और चेष्टारहित होकर बहुत समय तक खड़ी ही रही । जब उसने किसी का वरण नहीं किया, तब सर्व राजागण क्या अपने में रूप वेश या चेष्टा आदि में कोई दोष होगा ? ऐसी शंका में अपने आपको देखने लगे। इतने में एक सखी ने कनकवती को कहा कि हे भद्रे । क्यों अभी भी विलंब करती हो ! किसी भी पुरूष के कंठ में स्वंयवर की माला आरोपित करो। कनकवती बोली, जिस पर रूचि हो, उसी का वरण किया जाता है, पर मेरे मंदभाग्य से जो मुझे पसंद था, उस पुरूष को मैं इस मंडप में देखती ही नहीं हूँ। तब वह चिंता करने लगी कि अब मुझे क्या उपाय करना ? मेरी क्या गति होगी? मैं अपने द्रष्टि वर को इनमें देखती नहीं हूँ । इसलिए हे हृदय ! तू दो भाग में हो जा। इस प्रकार चिंता करती थी कि मैं उस रमणी ने वहाँ कुबेर को देखा। तब उसने प्रणाम करके दीनस्वर में रूदन करते हुए अंजली जोड़ कर इस प्रकार कहने लगी हे देव! मैं तुम्हारी पूर्व भव की पत्नि हूँ, इसलिए तुम इस प्रकार मेरी मजाक मत करो। क्योंकि जिसका मैं वरण करना चाहती हूँ, उस भर्तरि को तुमने अंतर्हित कर दिया लगता है। तब कुबेर ने हास्य करके वसुदेव को कहाहे महाभाग! मैंने तुमको जो कुबेर कांता नाम की मुद्रिका दी थी वह हाथ में से निकाल दो।
(गा. 203 से 208)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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