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विश्रांति लेकर वहाँ रहे । कनकवती के पिता ने अपने वैभव के योग्य ऐसी उसने पूज्य वसुदेव की पूजा की। पूर्व निष्पादित उस उद्यान के अंतर्गत प्रासादों में घरों में जाते आते उद्यान में स्थित वसुदेव ने इसप्रकार की वाणी सुनी कि इस उद्यान में पहले सुर असुर और नेश्वरों से सेवित श्री नेमिनाथ प्रभु का समवसरण हुआ था। उस वक्त इस उद्यान में देवांगनाओं के साथ लक्ष्मी देवी अर्हत प्रभु के समक्ष रासरमी थी। अतः इस उद्यान का नाम लक्ष्मीरमण पड़ गया।
(गा. 89 से 96)
वसुदेव ने उन ऊँचे ऊँचे प्रासादों में जाकर श्री अर्हत प्रभु की प्रतिमा की दिव्य उपहारों के द्वारा पूजा करके भावपूर्वक वंदना की। इतने में वसुदेव ने वहाँ एक विमान को उतरता हुआ देखा। उस विमान में चारो ओर रत्न जड़े थे। मानो जंगम मेरू हो इस प्रकार दिखाई देता था । लक्षाधिक पताकाओं से लक्षित वह विमान पल्लवित वृक्ष जैसा दिखाई देता था । समुद्र की तरह उनके हाथी मगर और अश्वो के चित्रों से भरपूर था । कांति के द्वारा सूर्यमंडल के तेज का पान करता था। मेघनाथ सहित आकाश की भांति बंदीजनों के कोलाहल से आकुल था। मांगलिक वांजिगो के घोष से मेघगर्जना का भी तिरस्कार करता था और उसने वहाँ रहे हुए सभी विद्याधरों की ग्रीवा ऊँची करा दी थी। उस विमान को देखकर वसुदेव ने अपने पास स्थित किसी देव को पूछा कि इंद्र के जैसे किस देव का यह विमान है ? यह बताओ । देव ने कहा- यह धनद कुबेर का विमान है और उसमें बैठकर कुबेर ही किसी बडे हेतु से इस भूलोक में आए हैं। वे इस चैत्य अर्हत प्रभु की पूजा पश्चात् तुरंत ही कनकवती के स्वयंवर को देखने की इच्छा से वहाँ जावेंगे।
(गा. 97 से 105 )
यह सुनकर वसुदेव ने सोचा कि अहा ! इस कनकवती को धन्य है कि जिसके स्वयंवर में देवता भी आए हैं। कुबेर ने विमान से उतरकर श्री अर्हत प्रभु की प्रतिमा की पूजा वंदना करके परमात्मा के समक्ष गीत नृत्य आदि की संगीतमय प्रस्तुति दी। यह सब देखकर वसुदेव ने चिरकाल निवृतिपूर्वक चिंतन किया कि अहो! महात्मा और परम अर्हत ऐसे इस पुण्यवान देव को धन्य है । अहो! ऐसे महान प्रभाव वाले श्रीमंत अर्हंत के शासन को भी धन्य है। साथ ही ऐसा अद्भुत वृत्तांत जिसे दृष्टिगोचर हुआ है ऐसा मैं भी धन्य हूँ । कुबेर के अर्हत
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व )
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