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वहाँ आए। उस स्थान पर मुनि के विरोधियों को देखकर तत्काल धरणेंद्र ने क्रोधित होकर उनको विद्याभ्रष्ट कर दिया। इससे दीन होकर वे कहने लगे, हे देवेंद्र। ये मुनि हैं कि कौन है? यह हम नहीं जान पाये। केवल विधुदृष्ट्र का यह उत्पात है ऐसा कह कर हमको प्रेरणा देकर ऐसा कार्य कराया है। धरणेंद्र ने कहा अरे पापियों। मैं तो यहाँ मुनि के केवल ज्ञान के उत्सव के लिए आया हूँ। अब तुम जैसे अज्ञानियों और पापियों के लिए मुझे क्या करना। जाओ अब पुनः इतना ही नहीं परंतु उनकी संतति कोई पुरूष या स्त्री को सिद्ध नहीं होगी।
(गा. 472 से 484) प्रयास करने से तुमको विद्या सिद्ध होगी। परंतु याद रखना कि अरिहंत साधु और उनके आश्रितों पर द्वेष करने से तत्काल वे विद्याएँ निष्फल हो जाएंगी एवं रोहिणी आदि वे महाविद्याएं तो उस दुर्मति विधुदृष्ट को तो सिद्ध होगी ही नहीं। कभी तुमको किसी साधु मुनिराज के या महापुरूष के दर्शन होंगे तो उससे सिद्धि होगी। इस प्रकार कहकर धरणेंद्र केवली का महोत्सव करके अपने स्थान पर गये। पूर्व में उनके वंश में केतुमती नाम की कन्या हुई थी वो वह विद्या साध रही थी। उससे पुंडरीक वसुदेव ने विवाह किया था। उनके प्रभाव से उस केतुमती को विद्याएं सिद्ध हुई थी। हे चंद्रमुख! उनके वंश की मैं बालचंद्रा नाम की कन्या हूं। मुझे आपके प्रभाव से विद्याएं सिद्ध हुई है। अतः आपके वंशवर्ती हूँ। मेरा आप पाणिग्रहण करो और कहो कि मेरी विद्या सिद्ध कराने बदले में तुमको क्या दूं ? उसके आग्रह से वसुदेव ने कहा कि इस वेगवती को विद्या और दो पश्चात् वह वेगवती को लेकर गगनवल्लभ नगर में गई और वसुदेव तापस के आश्रम में आये।
(गा. 485 से 490) उस तापस के आश्रम में तत्काल तापसी व्रत लेकर दो राजा अपने पराक्रम की निंदा करते हुए आए। उनको देखकर वसुदेव ने उनके उद्वेग का कारण पूछा। तब वे बोले- श्रीवस्ती नाम की नगरी में अति निर्मल, चरित्र से पवित्र ऐसे एणी पुत्र नाम के पराक्रमी राजा हैं। उनके प्रियंगु सुंदरी नाम की पुत्री है। उसके स्वयंवर के लिए राजा ने बहुत से राजाओं को बुलाया परंतु वह स्त्री किसी भी राजा को वर माला नहीं पहना सकी। इससे आए हुए सभी राजाओं ने क्रोध में एकत्रित होकर उनके साथ संग्राम करना चालू कर दिया। परंतु उसने
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)